ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘शायद तुम डर गईं?’ हरीश का स्वर था।
थोड़ी देर रुकने के बाद फिर बोला-
‘सोचा सामने की बत्ती जला दूँ, कहीं घूँघट में अंधेरा न हो।’
वह फिर भी चुपचाप रही – हरीश समीप आकर बोला-
‘क्या हमसे रूठ गई हो?’ और धीरे से पार्वती का घूँघट उठा दिया।
‘जानती हो दुल्हन जब नये घर में प्रवेश करे तो उसका नया जीवन आरंभ होता है और उसे अपने देवता की हर बात माननी होती है।’
‘परंतु मैं आज अपने देवता के बिना पूछे ही किसी को कुछ दे बैठी।’
‘किसे?’
‘राजन को।’ वह काँपते स्वर में बोली।
‘क्या?’
‘स्नेह और मान जो सदा के लिए मेरी आँखों में होगा।’
‘तो तुमने ठीक किया – मनुष्य वही डूबते को सहारा दे।’
‘तो समझूँ, आपको मुझ पर पूरा विश्वास है।’
‘विश्वास! पार्वती मन ही तो है, इसे किसी ओर न ले जाना, तुम ही नहीं, बल्कि आज मेरे दिल में भी राजन के लिए स्नेह और मान है। कभी सोचता हूँ कि मैं उसे कितना गलत समझता था।’
‘परंतु जलन में वह आनंद का अनुभव करता है – कहता था... सुख और चैन मनुष्य को निकम्मा बना देते हैं, ‘जलन’ और ‘तड़प’ मनुष्य को ऊँचा उठने का अवसर देते हैं।’
‘पार्वती! मैं आज तुम्हें वचन देता हूँ कि उसे उठाना मेरा काम ही नहीं, बल्कि मेरा कर्तव्य होगा।’
पार्वती ने स्नेह भरी दृष्टि से हरीश की ओर देखा – हरीश के मुख पर अजीब आभा थी। उसे लगा कि निविड़ अंधकार में प्रकाश की रेखा फूट पड़ी थी।
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