ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘हाँ।’
‘बस उन्हीं के बाहर सारे दिन बैठा रहता हूँ।’
‘क्या पहरा देने के लिए?’
‘तुम्हारा अनुमान गलत नहीं।’
‘क्या भीतर कोई सोने या हीरों का खजाना है?’
‘सोने, हीरों का नहीं बल्कि विषैली गैसों का, जिसे अग्नि से बचाने के लिए बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। दियासलाई, सिगरेट इत्यादि किसी भी वस्तु को भीतर नहीं ले जाने दिया जाता। यदि चाहूँ तो मैनेजर तक की तलाशी ले सकता हूँ।’
‘फिर तो तुम्हारी पदवी मैनेजर से बड़ी है।’
‘पदवी तो बड़ी है भइया, परंतु आयु छोटी।’
और दोनों जोर-जोर से हँसने लगे। कुंदन हँसी रोककर बोला - ‘क्यों राजन आज की रात भी स्वर्ग की सीढ़ियों पर बीतेगी?’
‘आशा तो यही है।’
‘देखो... कहीं पूजा करते-करते देवता बन बैठे तो हम गरीब इंसानों को न भुला देना।’ वह मुस्कुराता हुआ फाटक की ओर बढ़ गया। राजन अपने काम की ओर लपका और फिर से कोयले की थैलियों को नीचे भेजना आरंभ कर दिया।
आखिर छुट्टी की घंटी हुई। प्रतिदिन की तरह माधो से छुट्टी पाकर राजन सीधा कुंदन के यहाँ पहुँचा। कपड़े बदलकर होटल का रास्ता लिया। उसने अपने भोजन का प्रबंध वहाँ के सराय के होटल में कर लिया था। वहाँ उसके कई साथी भी भोजन करते थे।
आज वह समय से पहले ही मंदिर पहुँच गया और सीढ़ियों पर बैठा उस पुजारिन की राह देखने लगा। पूजा का समय होते ही मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। हर छोटी सी छोटी आहट पर राजन के कान सतर्क हो उठते थे। परंतु उसके हृदय में बसने वाली पुजारिन लौटकर न आई! न आई!!
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