ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
पर उस मन का क्या करे? कैसे उसे समझाए?
वह प्रतिदिन साँझ के धुँधले प्रकाश में पूजा के समय प्रतिदिन सीढ़ियों पर जा बैठता था। इसी प्रकार पुजारिन की राह देखते-देखते चार दिन बीत गए। वह न लौटी। धीरे-धीरे राजन का भ्रम एक विश्वास-सा बन गया कि वह स्वप्न था, जो उसने उस रात्रि में उन सीढ़ियों पर देखा था।
एक दिन संध्या के समय जब वह सीढ़ियों पर लेटा आकाश में बिखरे घन खंडो को देख रहा था जो आपस में मिलकर भांति-भांति का आकृतियाँ बनाते और बिखर जाते थे, तो फिर उसके कानों में वहीं रुन-झुन सुनाई पड़ी। आहट हुई और स्वयं पुजारिन धीरे-धीरे पग रखती हुई सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।
आज भी उसके हाथ में फूल थे। उसने तिरछी दृष्टि से राजन की ओर देखा और मुस्कुराती हुई मंदिर की ओर बढ़ गई।
वह सोचने लगा, यह तो भ्रम नहीं सत्य है।
यह जाँचकर वह ऐसा अनुभव करने लगा, मानों उसने अपनी खोई संपति पा ली हो और बेचैनी से उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा। उसकी दृष्टि ऊपर वाली सीढ़ियों पर टिकी हुई थी और कान पायल की झंकार को सुनने को उतावले हो रहे थे। आज वह उसे अवश्य रोककर पूछेगा। परंतु क्या?
वह सोच रहा था कि उसके कानों में वह रुन-झुन गूँज उठी, पुजारिन राजन के समीप पहुँचते ही एक पल के लिए रुक गई। एक बार पलटकर देखा और फिर सीढ़ियाँ उतरने लगी। राजन की जिह्वा तालू से चिपक गई थी, परंतु जब उसने इस प्रकार जाते देखा तो बोल उठा - ‘सुनिए!’
वह रुक गई। राजन शीघ्रता से सीढ़ियाँ उतरता हुआ उसके निकट जा पहुँचा। वह चुपचाप खड़ी राजन के मुख की ओर अचल नयनों से देख रही थी।
‘क्या तुम यहाँ पूजा के लिए प्रतिदिन आती हो?’
‘क्या तुम प्रतिदिन यहाँ बैठकर मेरी राह देखते हो?’
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