ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘कहाँ?’
‘घूमने – मेरे वस्त्र यहीं रखे हैं।’
‘और लौटोगे कब तक?’
‘यह नहीं जानता। मौजी मनुष्य हूँ। न जाने कहाँ खो जाऊँ?’
कहते-कहते राजन मंदिर की ओर चल पड़ा और उन्हीं सीढ़ियों पर बैठ ‘सुंदरता’ की राह देखने लगा। जरा सी आहट होती तो उसकी दृष्टि चारों ओर दौड़ जाती थी।
और वह एक थी कि जिसका कहीं चिह्न नहीं था, बैठे-बैठे रात्रि के नौ बज गए। मंदिर की घंटियों के शब्द धीरे-धीरे रात्रि की नीरसता में विलीन हो गए। उसके साथ ही थके हुए राजन की आँखें भी झपक गईं।
दूसरे दिन जब राजन काम पर गया तो सारा दिन यह सोचकर आश्चर्य में खोया रहा कि वह पुजारिन एक स्वप्न थी या सत्य।
आखिर वह कौन है? शायद उस रात्रि की घटना से उसने सायंकाल की पूजा पर आना छोड़ दिया हो। तरह-तरह के विचार उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। वह सोच रहा था, कब छुट्टी की घंटी बजे और वह उन्हीं सीढ़ियों पर जा बैठे। उसे पूरा विश्वास था कि वह यदि कोई वास्तविकता है तो अवश्य ही पूजा के लिए आएगी।
अचानक ही किसी शब्द ने उसे चौंका दिया, ‘राजन, क्या हो रहा है?’
यह कुंदन का कण्ठ स्वर था।
‘कोयले की दलाली में मुँह काला।’
‘बस एक ही दिन में घबरा गए।’
‘नहीं कुंदन घबराहट कैसी? परंतु तुम आज....।’
‘जरा सिर में पीड़ा थी। दफ्तर से छुट्टी ले आया।’
‘परंतु तुमने अभी तक यह नहीं बतलाया कि क्या काम करते हो?’
‘काम सुन लो। यह सामने जो ऊँची चट्टान एक गुफा-सी बना रही है।’
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