ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘देवताओं के तो नहीं – परंतु एक सुंदर फूल के अवश्य ही।’
‘किसी पुजारी के हाथ से सीढ़ियों पर गिर पड़ा होगा।’
‘यों ही समझ लो – अच्छा काकी कहाँ हैं?’
‘तुम्हारे लिए खाना बना रही हैं।’
‘परंतु...।’
‘राजन! अब यों न चलेगा, जब तक तुम्हारा ठीक प्रबंध नहीं होता – तुम्हें भोजन यहीं करना होगा और रहना भी यहीं।’
‘नहीं कुंदन! ऐसा नहीं हो सकता।’
‘तो क्या तुम मुझे पराया समझते हो?’
‘पराया नहीं – बल्कि तुम्हारे और समीप आने के लिए मैं यह बोझ तुम पर डालकर तुमसे दूर नहीं होना चाहता – मैं चाहता हूँ कि अपने मित्र से दिल खोलकर कह भी सकूँ और सुन भी सकूँ।’
‘अच्छा तुम्हारी इच्छा – परंतु आज तो...!’
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं – वैसे तो अपना घर समझ जब चाहूँ आ टपकूँ।’
‘सिर-आँखों पर... काकी भोजन शीघ्र लाओ। कुंदन ने आवाज दी और थोड़े ही समय में काकी भोजन ले आई – दोनों ने भरपेट भोजन किया और शुद्ध वायु सेवन के लिए बाहर खाट पर आ बैठे – इतने में ही मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं – राजन फिर से मौन हो गया – मानों घंटियों के शब्द ने उस पर जादू कर दिया हो – उसके मुख की आकृति बदली देख कुंदन बोला – क्यों राजन, क्या हुआ?’
‘यह शब्द सुन रहे हो कुंदन!’
‘मंदिर में पूजा हो रही है।’
‘मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है – जैसे यह शब्द मेरे कानों में बार-बार आकर कह रहे हों – इतने संसार में यदि एक-आध मनुष्य समय से पहले चला भी जाय तो हानि क्या है?’
‘अजीब बात है।’
‘तुम नहीं समझोगे कुंदन! अच्छा तो मैं चला।’
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