ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘राजन, आशा है कि तुम इस कार्य को शीघ्र ही समझ लोगे।’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है दादा!’ राजन ने सामने रखे चाय के प्याले पर दृष्टि फेंकते हुए उत्तर दिया और बोला - ‘दादा इसकी क्या आवश्यकता थी? तुमने तो बेकार कष्ट उठाया।’ कहते हुए चाय का प्याला उठाकर गटागट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा क्रोध आया, पर बनावटी मुस्कान होंठों पर लाते हुए बोला - ‘कष्ट काहे का – आखिर दिन भर के काम के पश्चात् एक प्याला चाय ही तो दी है।’
‘दादा! अब तो कल प्रातः तक की छुट्टी?’ राजन ने खाली प्याला वापस रखते हुए पूछा।
‘क्यों नहीं – हाँ, देखो यह सरकारी वर्दी रखी है और यह रहा तुम्हारा गेट पास – इसका हर समय तुम्हारे पास होना आवश्यक है।’
‘यह तो अच्छा किया – वरना सोच रहा था कि प्रतिदिन कोयले से रंगे काले मेरे वस्त्रों को धोएगा कौन?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दूसरे हाथ से वस्त्र उठाते हुए वह दफ्तर की ओर चल पड़ा – कंपनी के गेट से बाहर निकलते ही राजन सीधा कुंदन के घर पहुँचा – कुंदन उसे देखते ही बोला -
‘क्यों राजन! आते ही झूठ बोलना आरंभ कर दिया?’
‘झूठ – कैसा झूठ?’
‘अच्छा बताओ रात कहाँ सोए थे?’
‘रात? स्वर्ग की सीढ़ियों पर?’
‘हाँ भाई! वह पहाड़ी वाले मंदिर की सीढ़ियों पर।’
‘तो यों कहो न।’
यह सुनते ही कुंदन जोर से हँसने लगा और राजन के और समीप होते हुए बोला – स्वर्ग की सीढ़ियों से ही लौट कर आए या भीतर जाकर देवताओं के दर्शन भी किए।
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