ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘रात को.... किसी ने कहा तो नहीं।’
‘रात पहुँचा तो सही.... परंतु तुम्हारे यहाँ न पहुँच सका।’
‘बाबा तो थे ही नहीं... फिर तुम्हें भी न देखा... जानते हो सारी रात फूलों के बिछोने मेरे आँसुओं ने सजाए।’
‘बजती शहनाइयाँ तो मैंने भी सुनीं और आकाश पर फटते रंगीन सितारें देख मैं तो प्रसन्नता से पागल हुआ जा रहा था... पर यह सब मैंने दूर से देखा... मुझे तो किसी की चिता जलानी थी?’
‘राजन!’ पार्वती के दिल में एक हूक-सी उठी।
‘हाँ... पार्वती’! माँ की चिता! वह मुझे छोड़कर सदा के लिए इस संसार से चली गई है।’
‘यह सब कैसे हुआ?’
‘कई बार सोचा... एक बार तुम्हें देख लूँ... परंतु भाग्य को स्वीकार न था।’
‘मैं उनसे मिली थी राजन।’
‘कब?’
‘जिस साँझ उन्होंने तुम्हारी आरती उतारी थी।’
‘पार्वती! रात को जब मैं जलती चिता के किनारे खड़ा आकाश पर जलते सितारें देख रहा था तो मुझे वही महात्मा दिखाई पड़े... जो कहते थे.... तुम्हारे प्रेम में सिवाय ‘जलन’ और ‘तड़प’ के कुछ नहीं और मैं मुस्कुरा दिया था।’
‘राजन! अब इन सब बातों को भूलना होगा।’
‘इसीलिए तो आज मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ।’
‘क्या?’
‘तुम्हारी इन आँखों में मान और स्नेह – जिसमें प्रेम की झलक हो... जलते हुए अंगारों को अब केवल जल की आवश्यकता है।’
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