ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘यह तो पुराने विचार हैं, आजकल इन बातों में बहस और भ्रम कैसे?’
‘पुराने विचारों पर विश्वास तो मुझे भी न था परंतु अब तो अपने आप पर भी न रहा।’
‘राजन, संसार में मनुष्य कई बाजियाँ हारकर ही जीतता है।’
‘मन को बहलाना है मैनेजर साहब – किसी तरह बहलाया जाए – वरना किसकी हार किसकी जीत।’
इतने में माधो भी आ पहुँचा और एक तीखी दृष्टि में राजन को देखते-देखते हरीश के पास जा बैठा। राजन थोड़ी देर चुप रहने के बाद उठा और हरीश से जाने की आज्ञा माँगी परंतु वह रोकते हुए बोला -‘क्या पार्वती से न मिलोगे?’
राजन ने मुँह से कोई उत्तर न दिया.... परंतु उसकी आँखों में छिपे आँसुओं से हरीश भाँप गया और सीढ़ियों पर खड़ी एक स्त्री को संकेत किया। राजन आश्चर्यपूर्वक हरीश को देखने लगा और फिर धीरे-धीरे पग उठाता ऊपर की ओर जाने लगा।
जब उसने दुल्हन के सुसज्जित कमरे में प्रवेश किया तो सामने सुंदर कपड़ों में पार्वती को देख उसकी आँखों में छिपे मोती छलक पड़े, जिन्हें वह मानों पी गया और चुपचाप पार्वती को देखने लगा। जो लाज से अपना मुख घूँघट में छिपाए दूसरी ओर किए बैठी थी। वह अपने विचारों में आज इतनी डूबी बैठी थी कि उसे किसी के आने की आहट सुनाई न दी।
राजन ने धीरे से झिझकते हुए पुकारा - ‘पार्वती!’
पार्वती काँप-सी गई और मुँह पर घूँघट की ओट से राजन को एक तिरछी नजर से देखा। उसे अकेला देख उसने घूँघट चेहरे से हटाया और चुपचाप उसे देखने लगी। पार्वती दुल्हन के रूप में पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान लग रही थी। उसकी भोली और उदासी से भरी सूरत को देख राजन का दिल डूब गया... फिर संभलते हुए बोला -
‘पार्वती तुम्हें देखने चला आया... कुछ देर से पहुँचा।’
‘देर से... कब आए?’ वह धीरे से बोली।
‘कल रात।’
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