ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
दूसरी साँझ जब हरीश के घर के सामने पार्वती की डोली रुकी तो मजदरों का एक जत्था नाचता-गाता पीछे आ रहा था। माधो थैली से पैसे निकाल उस समूह पर न्यौछावर करता और जब वह उन पैसों को उठाने दौड़ते तो वह फूला न समाता। प्रसन्न भी क्यों न होता – सफलता का सेहरा भी उसी के सिर पर था।
डोली का पर्दा उठा तो पार्वती बाहर आई। कुछ स्त्रियाँ जो शायद हरीश के घर से आई हुई थीं, दुल्हन के समीप आ गईं और उसे अन्दर की ओर ले जाने लगीं। माधो ने थैली से कुछ पैसे निकाले – कहारों की ओर हाथ बढ़ाया तो चौक उठा – उसके मुँह से निकला - ‘राजन’ और हाथ वापस लौटा लिए। उसके सारे कहारों में एक राजन था जिसके मुँह पर उदासी के बादल छा रहे थे। राजन का नाम सुनते ही हरीश मुड़ा – जाती हुई दुल्हन के कदम भी पल भर के लिए रुक गए। सबके मुँह पर हवाईयाँ उड़ने लगीं। हरीश संभलते हुए बोला - ‘आओ राजन! तुम कब आये?’
‘मैनेजर साहब – आप चाहे मुझे अपनी शादी में न बुलाते, परंतु पार्वती की शादी में मुझे आना ही था – डोली में कंधा कौन देता।’
‘हाँ – क्यों तुम्हारा अपना घर है, जब जी चाहे आओ न। इस बस्ती में और है ही कौन, जिससे दो घड़ी बैठ अपना मन बहलाओगे।’
‘इसीलिए तो काम अधूरा छोड़कर चला आया। कहीं काका यह न कहें कि पार्वती का अपना भाई नहीं, डोली उठाने राजन भी नहीं आया।’
भाई का नाम सुनते ही हरीश घबराकर माधो की ओर देखने लगा। माधो लज्जित सा हो दूसरी ओर देखता हुआ बाकी कहारों को एक ओर ले जा पैसे देने लगा। ज्यों ही दुल्हन के पाँव अंदर की ओर बढ़े – हरीश राजन से बोला - ‘भइया अंदर चलो।’
फिर दोनों चुपचाप दुल्हन के पीछे जाने लगे। नई दुल्हन को ऊपर वाले कमरे में ले जाया गया और हरीश राजन को साथ ले नीचे गोल कमरे में जा बैठा। उसने एक नौकर से राजन के खाने के लिए लाने को कहा परंतु राजन ने इंकार कर दिया।
‘क्यों राजन, मुँह भी मीठा नहीं करोगे?’
‘आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं मैनेजर साहब! भला मैं इस घर का कैसे खा सकता हूँ?’
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