ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘तुम्हें भी एक वचन देना होगा।’
‘कहो।’
‘आज इन आँखों में आँसुओं की जगह मुस्कुराहट दिखाई दे।’
अभी वह बात पूरी कर भी न पाई थी कि हरीश ने अंदर प्रवेश किया... पार्वती ने झट से घूँघट ओढ़ अपना मुँह घूँघट में छिपा लिया... हरीश मुस्कुराते हुए बोला –‘कहो राजन... क्या बात चल रही है? तुम्हें घर पसंद आया कि नहीं?’
‘देवता का गृह तो स्वर्ग होता है... स्वर्ग भी किसी को पसंद न हो? हाँ मैनेजर साहब... आपको इस स्वर्ग में एक बात का ध्यान रखना होगा।’
‘क्या?’
‘पार्वती उदास न होने पाए।’
यह शब्द राजन के मुँह से इस भोलेपन से निकले कि हरीश अपनी हँसी रोक न सका... राजन हाथ बाँधता बाहर को जाने लगा।
जाते-जाते बोला -‘मैनेजर साहब... हम अछूत सही... परंतु नीच नहीं... निर्धन अवश्य हैं... परंतु दिल इतना तंग नहीं रखते... जहाँ तूफान की तरह जूझना जानते हैं... वहाँ झरनों की तरह बह भी पड़ते हैं. फिर भी मनुष्य हैं और मनुष्यों से गलती होना स्वाभाविक है।’
दोनों बाहर चले गए... पार्वती ने छिपी-छिपी आँखों से उस दरवाजे को देखा... जहाँ थोड़ी देर पहले राजन खड़ा उससे बातें कर रहा था।
कंचन सामने खड़ी भाभी को देख मुस्कुरा रही थी। वह हरीश की छोटी बहन थी।
‘आओ कंचन!’ पार्वती ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया।
‘मैंने सोचा सब अच्छी प्रकार से देख लें तो मैं भाभी के पास जाऊँ।’
‘तो इसलिए इतनी देर से वहीं बैठी हो।’
‘हाँ भाभी.... मैं तो आनंदपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी और सोच रही थी, कुछ नहीं...’
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