ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘पागल कहीं का! कुछ सोच-समझकर मुँह से शब्द निकाला कर, पहले कपड़े बदल।’
माँ ने मुँह बनाते हुए कहा परंतु साथ ही भय से काँप रही थी। राजन ने वस्त्र ले लिए और लटकते हुए कम्बल की ओट में बदलने लगा। माँ एक बर्तन में थोड़ा जल ले आग पर रखने लगी।
‘यह किसलिए’– राजन बाहर आते ही बोला। उसके कान अब तक शहनाई की ओर लगे हुए थे।
‘तुम्हारे लिए थोड़ी चाय।’ अभी वह कह भी नहीं पाई थी कि राजन बाहर निकल गया। माँ बर्तन को वहीं छोड़ शीघ्रता से राजन के पीछे आँगन में आ गई। राजन को दरवाजे की ओर बढ़ते देख बोली -
‘राजन!’
आवाज सुनकर वह रुक गया और घूमकर माँ की ओर देखी।
‘राजन! मैं जानती हूँ तू इतनी रात गए इस तूफान में क्यों आया है। परंतु बेटा तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिए।’
‘भला क्यों?’
‘इसी में तुम दोनों की भलाई है।’
‘भलाई – यह तो निर्धन की कमजोरियाँ हैं जिनका वह शिकार हो जाता है। नहीं तो आज किसकी हिम्मत थी जो मेरे प्रेम को इस प्रकार पैरों तले रौंद देता?’
‘मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि सब कुछ देखते हुए भी विष का घूँट पी ले।’
‘किसी के घर में आग लगी है और तुम कहती हो कि चुपचाप खड़ा देखता रहे?’
‘आग लगी नहीं – लग चुकी है। सब कुछ जलने के पश्चात खबर नहीं तो और क्या कर सकोगे?’
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