ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
उसने भीगे वस्त्र निचोड़े और वादी की ओर चल दिया। रास्ता अभी तक बर्फ से ढका हुआ था। जब वह मंदिर के पास पहुँचा तो वहाँ कोई भी न था। मंदिर के किवाड़ बंद थे। प्रकाश केवल झरोखों से बाहर आ रहा था। राजन ने एक बार हरीश के घर को देखा, जो प्रकाश से जगमगा रहा था फिर अपने घर की ओर चल दिया।
घर का द्वार खोला तो माँ राजन को देख चौंक उठी। उसके विचारों को भाँप गई। फिर टूटे शब्दों में बोली -
‘राजी... तू... आ... गया...यह... कपड़े?’
‘माँ, मेरे कपड़े निकालो, मुझे पार्वती की शादी में जाना है। यह तो भीग गए हैं।’
‘अभी तो आया है, विश्राम तो कर, अपनी जान...।’
‘नहीं माँ, मुझे जाना है। तू क्या जाने मैं किस तूफान का सामना करता आया यहाँ पहुँचा हूँ।’
‘वह तो मैं देख रही हूँ, जरा आग के पास आ जा, मैं तेरे कपड़े लाती हूँ, अभी तो शादी में देर है।’
‘जल्दी करो माँ – मुझे एक-एक पल दूभर हो रहा है।’ यह कहते हुए वह जलती अंगीठी के पास जा खड़ा हुआ। माँ भय से काँपती हुई दरवाजे से बाहर आ गई और बरामदे में रखे संदूक से राजन के वस्त्रों का एक जोड़ा निकाले दबे पाँव द्वार की ओर बढ़ी। वह बार-बार मुड़कर खुले द्वार को देखती कि कहीं राजन बाहर न आ जाए। उसने शीघ्रता से बाहर का द्वार बंद कर दिया।
कुंडा लगाते ही उसके कानों में शहनाई का शब्द सुनाई पड़ा। उस शब्द के साथ ही राजन चिल्लाया –‘माँ।’
‘आई बेटा!’
उसने आँचल से हाथ बाहर निकाला और कुंडे में ताला डाल दिया। फिर शीघ्रता से पग बढ़ाती कमरे में पहुँची। राजन अपने स्थान पर खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। दोनों की आँखें मिली, दोनों ही चुपचाप शहनाई की आवाज सुनने लगे, राजन ने कानों में उंगलियां देते हुए कहा –‘सुन रही हो माँ! यह आज मेरी मृत्यु को पुकार रही है।’
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