ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
छह
दूसरी साँझ ठीक पूजा के समय मंदिर की सीढ़ियों पर फिर से पायजेब की झँकार सुनाई दी। आज एक अरसे के बाद पार्वती अपने देवता के लिए जा रही थी। सीढ़ियों पर आज उसके पग धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वह हृदय कड़ा कर मन में देवता का ध्यान धर ऊपर जाने लगी। पूजा के फूलों में से एक लाल गुलाब नीचे गिरा। पार्वती के उठते हुए कदम अपने आप रुक गए। वह घबरा-सी गई, नीचे झुक कर फूल उठाने लगी, परंतु उसका हाथ पड़ने से पहले ही वह फूल किसी राही के पाँव तले आकर मसला गया। पार्वती ने एक कड़ी दृष्टि से उस राहगीर को देखा – जो एक साधु था और फिर कदम बढ़ाती सीढ़ियाँ चढ़ गई।
सर्दी के कारण मंदिर में भीड़ बहुत कम थी। अंदर प्रवेश करते ही पार्वती ने एक बार चारों ओर देखा। दीवारों पर लगी तस्वीरें तथा देवमूर्ति सब उदास लगते थे... मानों उनकी पुजारिन के बिना उनकी दुनिया सुनसान थी। धीरे-धीरे वह देवमूर्ति की ओर बढ़ी। केशव काका उसको देखते ही मुस्कुराए और प्रसाद की थाली एक बुढ़िया के हाथ में देते हुए बोले -
‘आओ पार्वती – पूजा की थाली लाना भूल गई क्या?’
‘हाँ काका – फूल जो लाई हूँ।’ फिर पास खड़ी बुढ़िया को देखने लगी जो टकटकी बाँध उसके चेहरे को देख रही थी। केशव यूँ अनजान नजरों से एक-दूसरे को देखते हुए बुढ़िया से बोला -
‘मेरी बेटी पार्वती आज बहुत दिनों के बाद पूजा को चली आई।’
‘ओह चिरंजीवी रहो बेटी!’ लड़खड़ाते शब्दों में बुढ़िया ने उसे आशीर्वाद दिया और बाहर चली गई। पार्वती ने एक बार उसे देखा, फिर देवता की तरफ मुड़ी।
‘जानती हो कौन थी?’ केशव ने थाली में रखे दीये में जोत डालते हुए पूछा।
‘नहीं तो।’ पार्वती ने फूल देवता के चरणों में अर्पित किए और जिज्ञासु की भांति उसकी ओर देखने लगी। केशव ने थाली बढ़ाई। पार्वती ने दीये की जोत जला दी। सामग्री का धुआँ पार्वती के चेहरे पर लाते हुए बोला-
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