ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘राजन की माँ।’
‘माँ!’ पार्वती के मुँह से निकला और वह आश्चर्यचकित हो केशव की ओर देखने लगी।
केशव थाली नीचे रखता हुआ बोला - ‘क्यों क्या हुआ?’
‘मुझे... कुछ भी तो नहीं... परंतु यह यहाँ?’
‘थोड़े ही दिन हुए आई हैं। प्रतिदिन पूजा को आती हैं। कह रही थीं – शायद राजन बाहर जा रहा है।’
यह सुनकर पार्वती के हृदय को ठेस-सी लगी। वह पूछना चाहती थी – कहाँ जा रहा है वह.... पर शब्द मुँह में ही रह गए।
ज्यों ही राजन की माँ को धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरते देखा वह उस ओर लपकी परंतु उसके पैर अचानक रुक गए और वह मुंडेर की ओट में छिप गई। सीढ़ियों पर मुँह मोड़े राजन खड़ा था। पार्वती अपने को रोक न सकी। चोरी-चोरी उसने नीचे झाँका। माँ अपने बेटे की आरती उतार रही थी। राजन ने अपनी माँ के पैर झुए और सीढ़ियों पर मसले फूल को उठा लिया। पहले फूल की ओर और फिर मंदिर की ओर देखने लगा, पार्वती फिर ओट में हो गई। न जाने किन-किन बातों को याद कर उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
थोड़ी देर बाद जब उसने नीचे देखा तो राजन दूर जा रहा था। वह मुंडेर से बाहर आ गई और उसे देखने लगी। दूर कंपनी का ट्रक खड़ा था शायद कहीं बाहर जा रहा था। किसी के आने की आहट पर उसने आँसू पोंछ डाले। केशव समीप आते हुए बोला -
‘क्यों पार्वती, क्या देख रही हो?’
‘दूर बर्फ से ढकी चट्टानों को।’
‘ओह! आज ‘वादी’ की काली पहाड़ियाँ सफेद हो गईं।’
‘हाँ काका, तुम कहते थे राजन अछूत है और नास्तिक भी।’
‘हाँ तो।’
‘तो उसकी माँ प्रतिदिन पूजा करने क्यों आती है?’
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