ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘तो मनुष्य दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अपने अरमानों का खून कर दे?’
‘हाँ पार्वती! अपने लिए तो हर कोई जीता है परंतु किसी दूसरे के लिए जीना ही जीवन है।’
पार्वती चुप हो गई। न जाने कितनी ही देर बैठी जीवन की उलझनों को मानों सुलझाती रही। उधर केशव दादा सोने के लिए गए। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। इस सन्नाटे में मानों आज भय के स्थान पर शांति छिपी हुई थी। बाबा के जाने के बाद वह पहली रात्रि थी जो पार्वती को न भा पा रही थी। वह अपने बिस्तर से उठ, खिड़की के समीप जा खड़ी हुई और उसे खोल लिया।
बाहर अंधेरा छाया हुआ था। धुनकी हुई रुई के समान बर्फ गिरती दिखाई दे रही थी। पहाड़ी की ऊँचाई पर लगी ‘सर्चलाइट’ का प्रकाश घूम-घूमकर बर्फ ढँकी ‘वादी’ को जगमगा रहा था। घूमता हुआ प्रकाश जब खिड़की से होते हुए पार्वती के चेहरे पर पड़ता तो उसकी आँखें मुँद जातीं। फिर आँख खुलते ही उसकी दृष्टि जाते हुए प्रकाश के साथ-साथ ऊँची सफेद चोटियों पर जा रुकती और उसे ऐसा अनुभव होता मानों वह ऊँचाई की ओर उड़ती जा रही हो और रह-रहकर वे शब्द उसके कानों में गूँजते - ‘अपने लिए तो हर कोई जीता है दूसरों के लिए जीना जीवन है।’
उसने खिड़की बंद करने को हाथ बढाया, पर न जाने क्या सोच उसे खुला छोड़ दिया और अपने बिस्तर पर जा लेटी।
उसकी आँखों में नींद न थी। वह टकटकी बाँधे खिड़की से गिरती बर्फ को देखती जा रही थी।
उसे भी अपने बाबा का वचन पूरा करना था। उसे इस संसार में एक मनुष्य की तरह जीना है और देवता की लगन उसका सच्चा जीवन। वही उसे शांति और सुख का रास्ता दिखाता है।
दूर कहीं कोई उस अंधेरी और बर्फीली रात्रि में बाँसुरी की तान छेड़ रहा था। पार्वती अपनी धुन में मस्त हो गई।
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