ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
‘देखो पार्वती – कहो तो मैं सुबह के बदले साँझ को भोजन कर लिया करूँ। दो बार तो खाना नहीं खा सकता, और तुम अकेली होने से कभी बनाती हो और कभी भूख न लगने का बहाना कर चूल्हा तक नहीं जलाती।’
‘नहीं दादा, सच कहती हूँ, भूख नहीं।’
‘पार्वती तुम तो अपनी सुध भी खो बैठी हो, लो कुछ खा लो।’
पार्वती ने केशव के हाथों से फल लिए और खाने लगी, केशव उसे स्नेह भरी दृष्टि से देखने लगा।
‘पार्वती आज फिर माधो आया था।’
‘सुनो दादा! अब मैं इस सबसे दूर रहना चाहती हूँ।’
‘संसार में रहकर संसार वालों से दूर नहीं रहा जा सकता बेटी।’
‘परंतु मैं संसार में रहते हुए भी सबसे दूर रहूँगी।’
‘कैसे? और फिर बाबा को दिया हुआ वचन कैसे पूरा होगा?’
‘भगवान से लगन लगाकर। बाबा की यही इच्छा थी न दादा।’
‘हाँ तो स्त्री का भगवान उसका पति ही होता है।’
‘तो मैं अपने देवता से ब्याह करूँगी – उसके चरणों में रहकर उसके गुण गा-गाकर सबको सुनाऊँगी।’
‘पर जानती हो भगवान कभी प्रसन्न न होंगे।’
‘सो क्यों?’
‘इसलिए कि मनुष्य को सदा संसार में मनुष्य की तरह ही रहना चाहिए। मनुष्य वही है जिसके हृदय में दूसरों के लिए ममता हो।’
‘तो आप सब मुझे मनुष्यों से दूर करना चाहते हैं।’
‘ऐसा हम क्यों करने लगे?’
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