ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
राजन प्रतिदिन काम समाप्त होने पर पार्वती के पास जाता। मैनेजर, माधो आदि भी वहाँ मौजूद होते। उनके होते हुए भी वह बुत-सा बना चटाई पर बैठ जाता और पार्वती से अकेले में न मिल पाता, जब वह पार्वती के उदास चेहरे को देखता तो उसकी आँखों में आँसू आ जाते। फिर मन-ही-मन सोचता, अच्छा हो यह सब लोग यहाँ से चले जाएं और मैं दो घड़ी अकेले में बैठ पार्वती से एक-दो बातें कर लूँ परंतु कोई घड़ी भी ऐसी नहीं होती जब दो-चार लोग वहाँ मौजूद न हों।
इसी प्रकार चार दिन बीत गए। राजन न ही पार्वती को कुछ कह सका और न ही कुछ सुन सका। कितना बेबस था वह। हरीश, माधो, केशव उसे घूर-घूरकर देखते, परंतु वह उधर ध्यान न देता। जब पार्वती की उदासी को देखता तो व्याकुल हो उठता, सोचना कहीं नई परिस्थिति में वह बदल न जाए। ऐसे विचार उसे भयभीत कर देते हैं परंतु उसका हृदय न मानता।
उधर पार्वती अपनी नई परिस्थिति को देखकर चुप थी। चारों ओर तूफान था परंतु वह शांत थी। उसे किसी का कोई भय न था। हरीश, माधो, केशव और न जाने कितने ही लोग प्रतिदिन आते और चले जाते परंतु पार्वती को किसी की जरा भी याद न थी। यहाँ तक कि राजन की उपस्थिति भी उसके विचारों को भंग न कर सकी। अब वह चलती-फिरती मूर्ति के समान थी, जिसके विचारों में हर समय एक ज्योति-सी जगमगाती हो। उसमे उसे अपने बाबा की तस्वीर दिखाई देती और वही उसे मानों खींचते-खींचते कहीं दूर ले जाती, जहाँ वह अपने देवता को प्रणाम करती और मन-ही-मन मुस्कुरा देती।
एक रात सोने से पहले जब वह अपने बिस्तर पर इन्हीं विचारों में खोई पड़ी थी तो किसी ने उसको थपथपाया – यह केशव था जो मुस्कुराते हुए उसके समीप जा बैठा और कुछ फल देता हुआ बोला –
‘यह तुम्हारे लिए लाया हूँ।’
‘ओह! केशव दादा, मंदिर से लौट आए?’
‘हाँ – भोजन कर चुकीं क्या?’
‘मुझे भूख नहीं दादा।’
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