ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
थोड़ी ही देर में माधो डॉक्टर को लिए आ पहुँचा। डॉक्टर के ‘इंजेक्शन’ से उन्हें कुछ होश आया। डॉक्टर ने केशव को चाय के लिए संकेत किया। केशव ने दो-चार घूंट चाय उनके मुँह में डाली।
बाबा ने एक नजर सबकी ओर दौड़ाई। सब चुपचाप उनकी ओर देख रहे थे। बाबा ने केशव से धीमे स्वर में पूछा - ‘पार्वती कहाँ है?’
पार्वती दरवाजे की ओट में खड़ी आँसू बहा रही थी। बाबा के मुँह से अपना नाम सुनते ही चौंक उठी। साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछ, धीरे-धीरे बाबा की ओर बढ़ी। बाबा पार्वती को देख होंठो पर एक हल्की सी मुस्कान ले आए, प्यार से अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया। वह उनके पास जा बैठी और अपने पल्ले से उनके माथे पर आए पसीने को पोंछने लगी। बाबा ने उसका हाथ रोका और प्यार से अपने होंठों पर रख चूम लिया। पार्वती ने बहुत धीरज बाँधा परंतु वह अपने आँसुओं को रोक न पाई। ‘पगली कहीं की! अभी तो तुम्हारे विदा होने में बहुत दिन हैं। अभी तो बारात आएगी। शहनाइयाँ बजेंगी – तू दुल्हन बनेगी। जब डोली में बैठेगी तो जी भरकर रो लेना।’ बाबा ने रुकते-रुकते कहा।
‘बाबा!’ कहते-कहते पार्वती बाबा की छाती से लिपट गई और बोली - ‘बाबा मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो मेरा बाबा चाहिए। मैं संसार की सब इच्छाएँ अपने बाबा पर न्यौछावर कर सकती हूँ। मुझे गलत मत समझो बाबा। मेरा इस संसार में सिवाया आपके और भगवान के कोई नहीं।’
बाबा ने स्नेह भरा हाथ पार्वती के सिर पर फेरा और सामने खड़े लोगों से बोले - ‘तुम सब मेरे मुँह को क्यों देख रहे हो! तुममें से कोई मेरी पार्वती के आँसू पोंछने वाला कोई नहीं? बेचारी रो-रोकर बेहाल हो रही है।’
केशव आगे बढ़ा और पार्वती को वहाँ से उठाकर चुप कराने लगा – फिर धीरे से उसके कानों में बोला –
‘पार्वती, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए – बाबा की तबियत वैसे ही ठीक नहीं।’
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