ई-पुस्तकें >> जलती चट्टान जलती चट्टानगुलशन नन्दा
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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना
मैनेजर हरीश और माधो शीघ्रता से बाबा के कमरे में गए और पार्वती बरामदे मंं खम्भे का सहारा ले बाबा के कमरे की ओर देखने लगी। बाबा की बीमारी का कारण वही है, यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू भर-भर आते थे। बाबा को कितना चाहती है, यह उसी का हृदय जानता था, परंतु मुँह से कुछ न कह पाती थी। उसके जी में आता कि बाबा से लिपट जाए और कहे- बाबा मुझे गलत न समझो। आपकी हर बात के लिए प्राण दे सकती हूँ परंतु यह सब कुछ किससे कहे। बाबा के समीप जाते ही घबराती थी। किसी के बाहर से आने की आहट हुई। उसने झट से आँसू पोंछ डाले। सामने खड़ा पुजारी उसे देख रहा था।
‘पार्वती बिटिया, मन इतना छोटा क्यों कर रही हो?’
‘कुछ समझ में नहीं आता केशव काका! बाबा को क्या हो गया है?’
‘घबराओ नहीं बुढ़ापा है, दो-चार रोज में ठीक हो जाएँगे।’
सुनकर पार्वती फूट-फूटकर रोने लगी। केशव ने धीरज बँधाते हुए कहा - ‘हिम्मत न हारो – तुम्हीं तो उनका जीवन हो।’
‘काका! तुम नहीं जानते कि यह सब मेरे ही कारण हुआ है।’
‘मैं सब जानता हूँ – उन्होंने कल रात मुझसे सब कुछ कह दिया।’
‘तो बाबा से जाकर कह दो – तुम्हारी पार्वती को बिना तुम्हारे संसार में कुछ नहीं चाहिए। वह अपने बाबा की प्रसन्नता के लिए संसार के सब सुखों को भी ठुकरा सकती है।’
अभी यह शब्द उसकी जुबान पर ही थे कि माधो शीघ्रता से बाहर निकला। उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थीं। उसे यूँ देख दोनों घबरा गए।
‘क्यों माधो, ठाकुर साहब?’ केशव के हाँफते होंठो से निकला।
‘जरा तबियत अधिक खराब है।’
पार्वती शीघ्र ही रसोईघर की ओर भागी और केशव बाबा के कमरे की ओर। बाबा का हाथ हरीश के हाथों में था और वे आँख बंद किए मूर्छित पड़े थे। केशव और हरीश चुपचाप एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों को चेहरों पर निराशा झलक रही थी।
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