ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
चन्दर ने देखा-बेचारी की बुरी हालत थी। मोटी तो बहुत नहीं थी पर हाँ, गाँव की तन्दुरुस्ती थी, लाल चेहरा, जिसे शरम ने तो दूना बना दिया था। एक हाथ से अपनी चोटी पकड़े थी, दूसरे से अपने कपड़े ठीक कर रही थी और दाँत से आँचल पकड़े।
“छोड़ दो उसे, यह क्या है सुधा! बड़ी जंगली हो तुम।” चन्दर ने डाँटकर कहा।
“जंगली मैं हूँ या यह?” चोटी छोड़कर सुधा बोली-”यह देखो, दाँत काट लिया है इसने।” सचमुच सुधा के कन्धे पर दाँत के निशान बने हुए थे।
चन्दर इस सम्भावना पर बेतहाशा हँसने लगा कि इतनी बड़ी लड़की दाँत काट सकती है-”क्यों जी, इतनी बड़ी हो गयी और दाँत काटती हो?” उसकी हँसी रुक नहीं रही थी। “सचमुच यह तो बड़े मजे की लड़की है। बिनती है इसका नाम? क्यों रे, महुआ बीनती थी क्या वहाँ, जो बुआजी ने बिनती नाम रखा है?”
वह पल्ला ठीक से ओढ़ चुकी थी। बोली, “नमस्ते।”
चन्दर और सुधा दोनों हँस पड़े। “अब इतनी देर बाद याद आयी।” चन्दर और भी हँसने लगा।
“बिनती! ए बिनती!” बुआ की आवाज आयी। बिनती ने सुधा की ओर देखा और चली गयी।
“और कहो सुधी,” चन्दर बोला-”क्या हाल-चाल रहा यहाँ?”
“फिर भी एक चिठ्ठी भी तो नहीं लिखी तुमने।” सुधा बड़ी शिकायत के स्वर में बोली, “हमें रोज रुलाई आती थी। और तुम्हारी वो आयी थी।”
“हमारी वो?” चन्दर ने चौंककर पूछा।
“अरे हाँ, तुम्हारी पम्मी रानी।”
“अच्छा वो आयी थीं। क्या बात हुई?”
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