ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“कुछ नहीं; तुम्हारी तसवीर देख-देखकर रो रही थीं।” सुधा ने उँगलियाँ नचाते हुए कहा।
“मेरी तसवीर देखकर! अच्छा, और थी कहाँ मेरी तसवीर?”
“अब तुम तो बहस करने लगे, हम कोई वकील हैं! तुम कोई नयी बात बताओ।” सुधा बोली।
“हम तो तुम्हें बहुत-बहुत बात बताएँगे। पूरी कहानी है।”
इतने में बिनती आयी। उसके हाथ में एक तश्तरी थी और एक गिलास। तश्तरी में कुछ मिठाई थी, और गिलास में शरबत। उसने लाकर तश्तरी चन्दर के सामने रख दी।
“ना भई, हम नहीं खाएँगे।” चन्दर ने इनकार किया।
बिनती ने सुधा की ओर देखा।
“खा लो। लगे नखरा करने। लखनऊ से आ रहे हैं न, तकल्लुफ न करें तो मालूम कैसे हो?” सुधा ने मुँह चिढ़ाते हुए कहा। चन्दर मुसकराकर खाने लगा।
“दीदी के कहने पर खाने लगे आप!” बिनती ने अपने हाथ की अँगूठी की ओर देखते हुए कहा।
चन्दर हँस दिया, कुछ बोला नहीं। बिनती चली गयी।
“बड़ी अच्छी लड़की मालूम पड़ती है यह।” चन्दर बोला।
“बहुत प्यारी है। और पढऩे में हमारी तरह नहीं है, बहुत तेज है।”
“अच्छा! तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“मास्टर साहब बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। और चन्दर, अब हम खूब बात करते हैं उनसे दुनिया-भर की और वे बस हमेशा सिर नीचे किये रहते हैं। एक दिन पढ़ते वक्त हम गरी पास में रखकर खाते गये, उन्हें मालूम ही नहीं हुआ। उनसे एक दिन कविता सुनवा दो।” सुधा बोली।
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