ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अरे यह क्या कर रही हो?” चन्दर ने पैर उठाते हुए कहा।
“तो तुमने इतने दिन क्यों लगाये?” सुधा ने दूसरे पाँयचे पर पेन्सिल लगाते हुए कहा।
“अरे, बड़ी आफत में फँस गये थे, सुधा। लखनऊ से हम लोग गये बरेली। वहाँ एक उत्सव में हम लोग भी गये और एक मिनिस्टर भी पहुँचे। कुछ सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, और मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन किया। फिर तो पुलिसवालों और मजदूरों में जमकर लड़ाई हुई। वह तो कहो एक बेचारा सोशलिस्ट लड़का था कैलाश मिश्रा, उसने हम लोगों की जान बचायी, वरना पापा और हम, दोनों ही अस्पताल में होते...”
“अच्छा! पापा ने हमें कुछ बताया नहीं!” सुधा घबराकर बोली और बड़ी देर तक बरेली, उपद्रव और कैलाश मिश्रा की बात करती रही।
“अरे ये बाहर गा कौन रहा है?” चन्दर ने सहसा पूछा।
बाहर कोई गाता हुआ आ रहा था, “आँचल में क्यों बाँध लिया मुझ परदेशी का प्यार....आँचल में क्यों...” और चन्दर को देखते ही उस लड़की ने चौंककर कहा, “अरे?” क्षण-भर स्तब्ध, और फिर शरम से लाल होकर भागी बाहर।
“अरे, भागती क्यों है? यही तो हैं चन्दर।” सुधा ने कहा।
लड़की बाहर रुक गयी और गरदन हिलाकर इशारे से कहा, “मैं नहीं आऊँगी। मुझे शरम लगती है।”
“अरे चली आ, देखो हम अभी पकड़ लाते हैं, बड़ी झक्की है यह।” कहकर सुधा उठी, वह फिर भागी। सुधा पीछे-पीछे भागी। थोड़ी देर बाद सुधा अन्दर आयी तो सुधा के हाथ में उस लड़की की चोटी और वह बेचारी बुरी तरह अस्त-व्यस्त थी। दाँत से अपने आँचल का छोर दबाये हुए थी बाल की तीन-चार लटें मुँह पर झुक रही थीं और लाज के मारे सिमटी जा रही थी और आँखें थीं कि मुस्काये या रोये, यह तय ही नहीं कर पायी थीं।
“देखो...चन्दर...देखो।” सुधा हाँफ रही थी-”यही है बिनती मोटकी कहीं की, इतनी मोटी है कि दम निकल गया हमारा।” सुधा बुरी तरह हाँफ रही थी।
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