ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
8
दूसरे दिन सुबह सुधा आँगन में बैठी हुई आलू छील रही थी और चन्दर का इन्तजार कर रही थी। उसी दिन रात को पापा आ गये थे और दूसरे दिन सुबह बुआजी और बिनती।
“सुधी!” किसी ने इतने प्यार से पुकारा कि हवाओं में रस भर गया।
“अच्छा! आ गये चन्दर!” सुधा आलू छोडक़र उठ बैठी, “क्या लाये हमारे लिए लखनऊ से?”
“बहुत कुछ, सुधा!”
“के है सुधा!” सहसा कमरे में से कोई बोला।
“चन्दर हैं।” सुधा ने कहा, “चन्दर, बुआ आ गयीं।” और कमरे से बुआजी बाहर आयीं।
“प्रणाम, बुआजी!” चन्दर बोला और पैर छूने के लिए झुका।
“हाँ, हाँ, हाँ!” बुआजी तीन कदम पीछे हट गयीं। “देखत्यों नैं हम पूजा की धोती पहने हैं। ई के है, सुधा!”
सुधा ने बुआ की बात का कुछ जवाब नहीं दिया-”चन्दर, चलो अपने कमरे में; यहाँ बुआ पूजा करेंगी।”
चन्दर अलग हटा। बुआ ने हाथ के पंचपात्र से वहाँ पानी छिडक़ा और जमीन फूँकने लगीं। “सुधा, बिनती को भेज देव।” बुआजी ने धूपदानी में महराजिन से कोयला लेते हुए कहा।
सुधा अपने कमरे में पहुँचकर चन्दर को खाट पर बिठाकर नीचे बैठ गयी।
“अरे, ऊपर बैठो।”
“नहीं, हम यहीं ठीक हैं।” कहकर वह बैठ गयी और चन्दर की पैंट पर पेन्सिल से लकीरें खींचने लगीं।
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