ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“आहा, चन्दर तुम आ गये? हमारे लिए क्या लाये?”
“पगली कहीं की!” मारे खुशी के चन्दर का गला भर गया।
“लेकिन तुम इतनी देर में क्यों आये, चन्दर!”
“कल रात को ही आ गये थे हम।”
“चलो-चलो, झूठ बोलना तो तुम्हारा धर्म बन गया। कल रात को आ गये होते तो अभी तक हम अच्छे भी हो गये होते।” और वह हाँफने लगी।
सर्जन आया, “बात मत करो...” उसने कहा।
उसने एक मिक्सचर दिया। फिर आला लगाकर देखा, और डॉक्टर शुक्ला को अलग ले जाकर कहा, “अभी दो घंटे और खतरा है। लेकिन परेशान मत होइए। अब सत्तर प्रतिशत आशा है। मरीज जो कहे, उसमें बाधा मत दीजिएगा। उसे जरा भी परेशानी न हो।”
सुधा ने चन्दर को बुलाया, “चन्दर, पापा से मत कहना। अब मैं बचूँगी नहीं। अब कहीं मत जाना, यहीं बैठो।”
“छिः पगली! डॉक्टर कह रहा है अब खतरा नहीं है।” चन्दर ने बहुत प्यार से कहा, “अभी तो तुम हमारे लिए जिन्दा रहोगी न!”
“कोशिश तो कर रही हूँ चन्दर, मौत से लड़ रही हूँ! चन्दर, उन्हें तार दे दो! पता नहीं देख पाऊँगी या नहीं।”
“दे दिया, सुधा!” चन्दर ने कहा और सिर झुकाकर सोचने लगा।
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