ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
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बड़ा भयानक दिन था। बहुत ऊँची छत का कमरा, दालानों में टाट के परदे पड़े थे और बाहर गर्मी की भयानक लू हू-हू करती हुई दानवों की तरह मुँह फाड़े दौड़ रही थी।
डॉक्टर साहब सिरहाने बैठे थे, पथरीली निगाहों से सुधा के पीले मृतप्राय चेहरे की ओर देखते हुए...बिनती और चन्दर बिना कुछ खाये-पीये चुपचाप बैठे थे-रह-रहकर बिनती सिसक उठती थी, लेकिन चन्दर ने मन पर पत्थर रख लिया था। वह एकटक एक ओर देख रहा था...कमरे में वातावरण शान्त था-रह-रहकर बिनती की सिसकियाँ, पापा की नि:श्वासें तथा घड़ी की निरन्तर टिक-टिक सुनाई पड़ रही थी।
चन्दर का हाथ बिनती की गोद में था। एक मूक संवेदना ने बिनती को सँभाल रखा था। चन्दर कभी बिनती की ओर देखता, कभी घड़ी की ओर। सुधा की ओर नहीं देख पाता था। दुख अपनी पूरी चोट करने के वक्त अकसर आदमी की आत्मा और मन को क्लोरोफार्म सुँघा देता है। चन्दर कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। संज्ञा-हत, नीरव, निश्चेष्ट...
घड़ी की सुई अविराम गति से चल रही थी। सर्जन कई दफे आये। नर्स ने आकर टेम्परेचर लिया। रात को ग्यारह बजे टेम्परेचर उतरने लगा। डॉक्टर शुक्ला की आँखें चमक उठीं। ठीक बाहर बजकर पाँच मिनट पर सुधा ने आँखें खोल दीं। चन्दर ने बिनती का हाथ मारे खुशी से दबा दिया।
“बिनती कहाँ है?” बड़े क्षीण स्वर में पूछा।
सुधा ने आँख घुमाकर देखा। पापा को देखते ही मुस्करा पड़ी।
बिनती और चन्दर उठकर आ गये।
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