ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अच्छा, मुझे नींद में लगा कि वह चीखी है।” फिर वह खड़े-खड़े सुधा का माथा सहलाते रहे और फिर लौट गये। नर्स अन्दर थी। बिनती चन्दर को बाहर ले आयी और बोली, “देखो, तुम कल जीजाजी को एक तार दे देना!”
“लेकिन अब वह होंगे कहाँ?”
“विजगापट्टम या कोलम्बो में जहाजी कम्पनी के पते से दिलवा देना तार।”
दोनों फिर जाकर सुधा के पास बैठ गये। नर्स बाहर सो रही थी। साढ़े तीन बज गये थे। ठंडी हवा चल रही थी। बिनती चन्दर के कन्धे पर सिर रखकर सो गयी। सहसा सुधा के होठ हिले और उसने कुछ अस्फुट स्वर में कहा। चन्दर ने सुधा के माथे पर हाथ रखा। माथा सहसा जलने लगा था; चन्दर घबरा उठा। उसने नर्स को जगाया। नर्स ने बगल में थर्मामीटर लगाया। तापक्रम एक सौ पाँच था। सारा बदन जल रहा था और रह-रहकर वह काँप उठती थी। चन्दर ने फिर घबराकर नर्स की ओर देखा। “घबराइए मत! डॉक्टर अभी आएगा।” लेकिन थोड़ी देर में हालत और बिगड़ गयी। और फिर उसी तरह दर्दनाक कराहें सुबह की हवा में सिर पटकने लगीं। नर्स ने इन लोगों को बाहर भेज दिया और बदन अँगोछने लगी।
थोड़ी देर में सुधा ने चीखकर पुकारा-”पापा...” इतनी भयानक आवाज थी कि जैसे सुधा को नरक के दूत पकड़े ले जा रहे हों। पापा गये। सुधा का चेहरा लाल था और वह हाथ पटक रही थी।...पापा को देखते ही बोली, “पापा...चन्दर को इलाहाबाद से बुलवा दो।”
“चन्दर आ गया बेटा, अभी बुलाते हैं।” ज्यों ही पापा ने माथे पर हाथ रखा कि सुधा चीख उठी-”तुम पापा नहीं हो...कौन हो तुम?...दूर हटो, छुओ मत...अरे बिनती...”
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