ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
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थोड़ी देर में तीनों गये और जाकर खड़े हो गये। अब चन्दर ने सुधा को देखा। उसका चेहरा सफेद पड़ गया था। जैसे जाड़े के दिनों में थोड़ी देर पानी में रहने के बाद उँगलियों का रंग रक्तहीन श्वेत हो जाता है। गालों की हड्डियाँ निकल आयी थीं और होठ काले पड़ गये थे। पलकों के चारों ओर कालापन गहरा गया था और आँखें जैसे बाहर निकली पड़ती थीं। खून इतना अधिक बह गया था कि लगता था बदन पर चमड़े की एक हल्की झिल्ली मढ़ दी गयी हो। यहाँ तक कि भीतर की हड्डी के उतार-चढ़ाव तक स्पष्ट दिख रहे थे। चन्दर ने डरते-डरते माथे पर हाथ रखा।
सुधा के होठों में कुछ हरकत हुई, उसने मुँह खोल दिया और आँखें बन्द किये हुए ही उसने करवट बदली, फिर कराही और सिर से पैर तक उसका बदन काँप उठा। नर्स ने नाड़ी देखी और कहा, अब ठीक है। कमजोरी बहुत है। थोड़ी देर बाद पसीना निकलना शुरू हुआ। पसीना पोंछते-पोंछते एक बज गया। बिनती बोली डॉक्टर साहब से-”मामाजी, अब आप सो जाइए। चन्दर देख लेंगे आज। नर्स है ही।”
डॉक्टर साहब की आँखें लाल हो रही थीं। सबके कहने पर वह अपनी सीट पर लेट रहे। नर्स बोली, “मैं बाहर आराम कुर्सी पर थोड़ा बैठ लूँ। कोई जरूरत हो तो बुला लेना।” चन्दर जाकर सुधा के सिरहाने बैठ गया। बिनती बोली, “तुम थके हुए आये हो। चलो तुम भी सो रहो। मैं देख रही हूँ!”
चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप बैठा रहा। बिनती ने सभी खिड़कियाँ खोल दीं और चन्दर के पास ही बैठ गयी। सुधा सो रही थी चुपचाप। थोड़ी देर बाद बिनती उठी, घड़ी देखी, मुँह खोलकर दवा दी। सहसा डॉक्टर साहब घबराये हुए-से आये-”क्या बात है, सुधा क्यों चीखी!”
“कुछ नहीं, सुधा तो सो रही है चुपचाप!” बिनती बोली।
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