ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
|
7 पाठकों को प्रिय 305 पाठक हैं |
संवेदनशील प्रेमकथा।
“गयी है शरबत बनाने।” गेसू ने चुन्नी से सिर ढँकते हुए और पाँवों को सलवार से ढँकते हुए कहा। चन्दर इधर-उधर बक्स में रूमाल ढूँढऩे लगा।
“आज बड़े खुश हैं, चन्दर भाई! कोई खायी हुई चीज मिल गयी है क्या? अरे, मैं बहन हूँ कुछ इनाम ही दे दीजिए।” गेसू ने चुटकी ली।
“इनाम की बात क्या, कहो तो वह चीज ही तुम्हें दे दूँ!”
“हाँ, कैलाश बाबू के दिल से पूछिए।” गेसू बोली।
“उनके दिल से तुम्हीं बात कर सकती हो!”
गेसू ने झेंपकर मुँह फेर लिया।
सुधा हाथ में दो गिलास लिए आयी। “लो गेसू, पियो।” एक गिलास गेसू को देकर बोली, “चन्दर, लो।”
“तुम पियो न!”
“नहीं, मैं नहीं पिऊँगी। बर्फ मुझे नुकसान करेगी!” सुधा ने चुपचाप कहा। चन्दर को याद आ गया। पहले सुधा चिढ़-चिढ़कर अपने आप चाय, शरबत पी जाती थी...और आज...
“क्या ढूँढ़ रहे हो, चन्दर?” सुधा बोली।
“रूमाल, कोई मिल ही नहीं रहा!”
“साल-भर में रूमाल खो दिये होंगे! मैं तो तुम्हारी आदत जानती हूँ। आज कपड़ा ला दो, कल सुबह रूमाल सी दूँ तुम्हारे लिए।” और उठकर उसने कैलाश के बक्स से एक रूमाल निकालकर दे दिया।
|