ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
उसके बाद वह उठी और बाहर से एक तश्तरी में कुछ फल काटकर लायी। चन्दर ने देखा-आम। “अरे आम! अभी कहाँ से आम ले आयीï? कौन लाया?”
“लखनऊ उतरी थी? वहाँ से तुम्हारे लिए लेती आयी।”
चन्दर ने एक आम की फाँक उठाकर खायी और किसी पुरानी घटना की याद दिलाने के लिए आँचल से हाथ पोंछ दिये। सुधा हँस पड़ी और बड़ी दुलार-भरी ताडऩा के स्वर में बोली, “बोलो, अब तो दिमाग नहीं बिगाड़ोगे अपना?”
“कभी नहीं सुधी, लेकिन पम्मी का क्या होगा? पम्मी से मैं सम्बन्ध नहीं तोड़ सकता। व्यवहार चाहे जितना सीमित कर दूँ।”
“मैं कब कहती हूँ, मैं तुम्हें कहीं से कभी बाँधना ही नहीं चाहती। जानती हूँ कि अगर चाहूँ भी तो कभी अपने मन के बाहुपाश ढीले कर तुम्हें चिरमुक्ति तो मैं न दे पाऊँगी, तो भला बन्धन ही क्यों बाँधूँ! पम्मी शाम को आएगी?”
“शायद...”
दरवाजा खटका और गेसू ने प्रवेश किया। आकर, दौडक़र सुधा से लिपट गयी। चन्दर उठकर चला आया। “चले कहाँ भाईजान, बैठिए न।”
“नहा लूँ, तब आता हूँ...” चन्दर चल दिया। वह इतना खुश था, इतना खुश कि बाथ-रूम में खूब गाता रहा और नहा चुकने के बाद उसे खयाल आया कि उसने बनियाइन उतारी ही नहीं थी। नहाकर कपड़े बदलकर वह आया तब भी गुनगुना रहा था। कमरे में आया तब देखा गेसू अकेली बैठी है।
“सुधा कहाँ गयी?” चन्दर ने नाचते हुए स्वर में कहा।
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