ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“यह तो प्रायश्चित्त है, चन्दर!” सुधा ने एक गहरी साँस लेकर कहा।
“प्रायश्चित...?” चन्दर ने अचरज से कहा।
“हाँ, प्रायश्चित्त...” सुधा ने अपने पाँव के बिछियों को धोती के छोर से रगड़ते हुए कहा, “हिन्दू गृह तो एक ऐसा जेल होता है जहाँ कैदी को उपवास करके प्राण छोड़ने की भी इजाजत नहीं रहती, अगर धर्म का बहाना न हो! धर्म के बहाने उपवास करके कुछ सुख मिल जाता है।”
एक क्षण आता है कि आदमी प्यार से विद्रोह कर चुका है, अपने जीवन की प्रेरणा-मूर्ति की गोद से बहुत दिन तक निर्वासित रह चुका है, उसका मन पागल हो उठता है फिर से प्यार करने को, बेहद प्यार करने को, अपने मन का दुलार फूलों की तरह बिखरा देने को। आज विद्रोह का तूफान उतर जाने के बाद अपनी उजड़ी हुई जिंदगी में बीमार सुधा को पाकर चन्दर का मन तड़प उठा। सुधा की पीठ पर लहराती हुई सूखी अलकें हाथ में ले लीं। उन्हें गूँथने का असफल प्रयास करते हुए बोला- “सुधा, यह तो सच है कि मैंने तुम्हारे मन को बहुत दुखाया है, लेकिन तुम तो हमारी हर बात को, हमारे हर क्रोध को क्षमा करती रही हो, इस बात का तुम इतना बुरा मान गयी?”
“किस बात का, चन्दर!” सुधा ने चन्दर की ओर देखकर कहा, “मैं किस बात का बुरा मान गयी!”
“किस बात का प्रायश्चित्त कर रही हो तुम, इस तरह अपने को मिटाकर!”
“प्रायश्चित्त तो मैं अपनी दुर्बलता का कर रही हूँ, चन्दर!”
“दुर्बलता?” चन्दर ने सुधा की अलकों को घटाओं की तरह छिटकाकर कहा।
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