ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“मैं!” वह एक फीकी हँसी हँसकर बोली, “मैं खा लूँ तो अभी कै हो जाये। मैं सिवा नींबू के शरबत और खिचड़ी के अब कुछ नहीं खाती। और वह भी एक वक्त!”
“क्यों?”
“असल में पहले मैंने एक व्रत किया, पन्द्रह दिन तक केवल प्रात:काल खाने का, तब से कुछ ऐसा हो गया कि शाम को खाते ही मन बिगड़ जाता है। इधर और कई रोग हो गये हैं।”
चन्दर का मन रो आया। सुधा, तुम चुपचाप इस तरह अपने को मिटाती रहीं! मान लिया चन्दर ने एक खत में तुम्हें लिख ही दिया था कि अब पत्र-व्यवहार बन्द कर दो! लेकिन क्या अगर तुम पत्र भेजतीं तो चन्दर की हिम्मत थी कि वह उत्तर न देता! अगर तुम समझ पातीं कि चन्दर के मन में कितना दुख है!
चन्दर चाहता था कि सुधा की गोद में अपने मन की सभी बातें बिखेर दे...लेकिन सुधा कहे, कुछ शिकायत करे तो चन्दर अपनी सफाई दे...लेकिन सुधा तो है कि शिकायत ही नहीं करती, सफाई देने का मौका ही नहीं देती...यह देवत्व की मूर्ति-सी पथरीली सुधा! यह चन्दर की सुधा तो नहीं! चन्दर का मन बहुत भर आया। उसके रुँधे गले से पूछा, “सुधा, तुम बहुत बदल गयी हो। खैर और तो जो कुछ है उसके लिए अब मैं क्या कहूँ, लेकिन अपनी तन्दुरुस्ती बिगाड़कर क्यों तुम मुझे दुख दे रही हो! अब यों भी मेरी जिंदगी में क्या रहा है! लेकिन एक ही सन्तोष था कि तुम सुखी हो। लेकिन तुमने मुझसे वह सहारा छीन लिया...पूजा किसकी करती हो?”
“पूजा कहाँ, पाठ करती हूँ, चन्दर! गीता का और भागवत का, कभी-कभी सूर सागर का! पूजा अब भला किसकी करूँगी? मुझ जैसी अभागिनी की पूजा भला स्वीकार कौन करेगा?”
“तब यह एक वक्त का भोजन क्यों?”
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