ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“अब कहते हैं कि बिनती को पढ़उबै! ब्याह न करबै! रही-सही इज्जत भी बेच रहे हैं। हमार तो किस्मत फूट गयी...” और वे फिर रोने लगीं, “पैदा होते काहे नहीं मर गयी कुलबोरनी... कुलच्छनी... अभागिन!”
सहसा बिनती छत से उतरी और आँगन में आकर खड़ी हो गयी, उसकी आँखों में आग भरी थी-”बस करो, माँजी!” वह चीखकर बोली, “बहुत सुन लिया मैंने। अब और बर्दाश्त नहीं होता। तुम्हारे कोसने से अब तक नहीं मरी, न मरूँगी। अब मैं सुनूँगी नहीं, मैं साफ कह देती हूँ। तुम्हें मेरी शक्ल अच्छी नहीं लगती तो जाओ तीरथ-यात्रा में अपना परलोक सुधारो! भगवान का भजन करो। समझी कि नहीं!”
चन्दर ने ताज्जुब से बिनती की ओर देखा। वह वही बिनती है जो माँजी की जरा-जरा-सी बात से लिपटकर रोया करती थी। बिनती का चेहरा तमतमाया हुआ था और गुस्से से बदन काँप रहा था। बुआ उछलकर खड़ी हो गयीं और दुगुनी चीखकर बोलीं, “अब बहुत जबान चलै लगी है। कौन है तोर जे के बल पर ई चमक दिखावत है? हम काट के धर देबै, तोके बताय देइत हई। मुँहझौंसी! ऐसी न होती तो काहे ई दिन देखै पड़त। उन्हें तो खाय गयी, हमहूँ का खाय लेव!” अपना मुँह पीटकर बुआ बोलीं।
“तुम इतनी मीठी नहीं हो माँजी कि तुम्हें खा लूँ!” बिनती ने और तड़पकर जवाब दिया।
चन्दर स्तब्ध हो गया। यह बिनती पागल हो गयी है। अपनी माँ को क्या कह रही है!
“छिः, बिनती! पागल हो गयी हो क्या? चलो उधर!” चन्दर ने डाँटकर कहा।
“चुप रहो, चन्दर! हम भी आदमी हैं, हमने जितना बर्दाश्त किया है, हमीं जानते हैं। हम क्यों बर्दाश्त करें! और तुमसे क्या मतलब? तुम कौन होते हो हमारे बीच में बोलने वाले?”
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