ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
“क्या है यह सब? तुम लोग सब पागल हो गये हो क्या? बिनती, यह क्या हो रहा है?” सहसा डॉक्टर साहब ने आकर कहा।
बिनती दौडक़र डॉक्टर साहब से लिपट गयी और रोकर बोली, “मामाजी, मुझे दीदी के पास भेज दीजिए! मैं यहाँ नहीं रहूँगी।”
“अच्छा बेटी! अच्छा! जाओ चन्दर!” डॉक्टर साहब ने कहा। बिनती चली गयी तो बुआ जी से बोले, “तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। उस पर गुस्सा उतारने से क्या फायदा? हमारे सामने ये सब बातें करोगी तो ठीक नहीं होगा।”
“अरे हम काहे बोलबै! हम तो मर जाईं तो अच्छा है...” बुआजी पर जैसे देवी माँ आ गयी हों इस तरह से झूम-झूमकर रो रही थीं...”हम तो वृन्दावन जाय के डूब मरीं! अब हम तुम लोगन की सकल न देखबै। हम मर जाईं तो चाहे बिनती को पढ़ायो चाहे नचायो-गवायो। हम अपनी आँख से न देखबै।”
उस रात को किसी ने खाना नहीं खाया। एक विचित्र-सा विषाद सारे घर पर छाया हुआ था। जाड़े की रात का गहन अँधेरा खामोश छाया हुआ था, महज एक अमंगल छाया की तरह कभी-कभी बुआजी का रुदन अँधेरे को झकझोर जाता था।
सभी चुपचाप भूखे सो गये...
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