ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
31
नवम्बर का एक खुशनुमा विहान; सोने के काँपते तारे सुबह की ठण्डी हवाओं में उलझे हुए थे। आकाश एक छोटे बच्चे के नीलम नयनों की तरह भोला और स्वच्छ लग रहा था। क्यारियाँ शरद के फूलों से भर गयी थीं और एक नयी ताजगी मौसम और मन में पुलक उठी थी। चन्दर अपना पुराना कत्थई स्वेटर और पीले रंग के पश्मीने का लम्बा कोट पहने लॉन पर टहल रहा था। छोटे-छोटे पिल्ले दूब पर किलोल कर रहे थे। सहसा एक कार आकर रुकी और पम्मी उसमें से कूद पड़ी और क्वाँरी हिरणी की तरह दौडक़र चन्दर के पास पहुँच गयी-”हलो माई ब्वॉय, मैं आ गयी!”
चन्दर कुछ नहीं बोला, “आओ, ड्राइंगरूम में बैठो!” उसने उसी मुर्दा-सी आवाज में कहा। उसे पम्मी के आने की कोई प्रसन्नता नहीं थी। पम्मी उसके उदास चेहरे को देखती रही, फिर उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोली, “क्यों कपूर, कुछ बीमार हो क्या?”
“नहीं तो, आजकल मुझे मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता। अकेला घर भी है!” उसने उसी फीकी आवाज में कहा।
“क्यों, मिस सुधा कहाँ है? और डॉक्टर शुक्ला!”
“वे लोग मिस बिनती की शादी में गये हैं।”
“अच्छा, उसकी शादी भी हो गयी, डैम इट। जैसे ये लोग पागल हो गये हैं, बर्टी, सुधा, बिनती!...क्यों, मिलते-जुलते क्यों नहीं तुम?”
“यों ही, मन नहीं होता।”
“समझ गयी, जो मुझे तीन-चार साल पहले हुआ था, कुछ निराशा हुई है तुम्हें!” पम्मी बोली।
“नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।”
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