ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
चन्दर ने खत पढ़ा और फौरन लिखा-
“प्रिय सुधा,
तुम्हारी पत्र बहुत दिनों के बाद मिला। तुम्हारी भाषा वहाँ जाकर बहुत निखर गयी है। मैं तो समझता हूँ कि अगर खत कहीं छुपा दिया जाये तो लोग इसे किसी रोमांटिक उपन्यास का अंश समझें, क्योंकि उपन्यासों के ही पात्र ऐसे खत लिखते हैं, वास्तविक जीवन के नहीं।
खैर, मैं अच्छा हूँ। हरेक आदमी जिंदगी से समझौता कर लेता है किन्तु मैंने जिंदगी से समर्पण कराकर उसके हथियार रख लिये हैं। अब किले के बाहर से आनेवाली आवाजें अच्छी नहीं लगतीं, न खतों के पाने की उत्सुकता, न जवाब लिखने का आग्रह। अगर मुझे अकेला छोड़ दो तो बहुत अच्छा होगा। मैं विनती करता हूँ, मुझे खत मत लिखना-आज विनती करता हूँ क्योंकि आज्ञा देने का अब साहस भी नहीं, अधिकार भी नहीं, व्यक्तित्व भी नहीं। खत तुम्हारा तुम्हें भेज रहा हूँ।
कभी जिंदगी में कोई जरूरत आ पड़े तो जरूर याद करना-बस, इसके अलावा कुछ नहीं।
चन्द्रकुमार कपूर।”
उसके बाद फिर वही सुनसान जिंदगी का ढर्रा। खँडहर के सन्नाटे में भूलकर आयी हुई बाँसुरी की आवाज की तरह सुधा का पत्र, सुधा का ध्यान आया और चला गया। खँडहर का सन्नाटा, सन्नाटे के उल्लू, गिरगिट और पत्थर काँपे और फिर मुस्तैदी से अपनी जगह पर जम गये और उसके बाद फिर वही उदास सन्नाटा, टूटता हुआ-सा अकेलापन और मूर्च्छित दोपहरी के फूल-सा चन्दर...
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