ई-पुस्तकें >> गुनाहों का देवता गुनाहों का देवताधर्मवीर भारती
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संवेदनशील प्रेमकथा।
14
सुधा ने हाथ धोकर आँचल के छोर से पकडक़र फोटो देखी और बोली, “चन्दर, सचमुच देखो! कितने अच्छे लग रहे हैं। कितना तेज है चेहरे पर, और माथा देखो कितना ऊँचा है।” सुधा फोटो देखती हुई बोली।
“अच्छी लगी फोटो? पसन्द है?” चन्दर ने बहुत गम्भीरता से पूछा।
“हाँ, हाँ, और समाजवादियों की तरह नहीं लगते ये।” सुधा बोली।
“अच्छा सुधा, यहाँ आओ।” और चन्दर के साथ सुधा अपने कमरे में जाकर पलँग पर बैठ गयी। चन्दर उसके पास बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी अँगूठी घुमाते हुए बोला, “सुधा, एक बात कहें, मानोगी?”
“क्या?” सुधा ने बहुत दुलार और भोलेपन से पूछा।
“पहले बता दो कि मानोगी?” चन्दर ने उसकी अँगूठी की ओर एकटक देखते हुए कहा।
“फिर, हमने कभी कोई बात तुम्हारी टाली है! क्या बात है?”
“तुम मानोगी चाहे कुछ भी हो?” चन्दर ने पूछा।
“हाँ-हाँ, कह तो दिया। अब कौन-सी तुम्हारी ऐसी बात है जो तुम्हारी सुधा नहीं मान सकती!” आँखों में, वाणी में, अंग-अंग से सुधा के आत्मसमर्पण छलक रहा था।
“फिर अपनी बात पर कायम रहना, सुधा! देखो!” उसने सुधा की उँगलियाँ अपनी पलकों से लगाते हुए कहा, “सुधी मेरी! तुम उस लड़के से ब्याह कर लो!”
“क्या?” सुधा चोट खायी नागिन की तरह तड़प उठी-”इस लड़के से? यही शकल है इसकी हमसे ब्याह करने की! चन्दर, हम ऐसा मजाक नापसन्द करते हैं, समझे कि नहीं! इसलिए बड़े प्यार से बुला लाये, बड़ा दुलार कर रहे थे!”
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