ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
निरुद्देश्य
निरुद्देश्य का अर्थ है उद्देश्यरहित, अर्थात् बिना प्रयोजन का। प्रयोजन बिना तो कोई मंदबुद्धि भी काम नहीं करता। इसलिए कोई समझदार घुमक्कड़ यदि निरुद्देश्य ही बीहड़पथ को पकड़े तो यह विचित्र-सी बात है। निरुद्देश्य बंगला में “घर से गुम हो जाने” को कहते हैं। यह बात कितने ही घुमक्कड़ों पर लागू हो सकती है, जिन्होंने कि एक बार घर छोड़ने के बाद फिर उधर मुँह नहीं किया। लेकिन घुमक्कड़ों के लिए जो साधन और कर्त्तव्य इस शास्त्र में लिखे गये हैं, उन्हें देखकर कितने ही घुमक्कड़ कह उठेंगे - हमें उनकी आवश्ययकता नहीं, क्योंकि हमारी यात्रा का कोई महान या लघु उद्देश्य नहीं। बहुत पूछने पर वह तुलसीदास की पाँती “स्वांत: सुखाय” कह देंगे। लेकिन 'स्वांत: सुखाय' कहकर भी तुलसीदास ने जो महती कृति संसार के लिए छोड़ी क्या वह निरुद्देश्यता की द्योतक है? खैर 'स्वांत: सुखाय' कह लीजिए, आप जो करेंगे वह बुरा काम तो नहीं होगा? आप बहुजन के अकल्याण का तो कोई काम नहीं करेंगे? ऐसा कोई संभ्रांत घुमक्कड़ नहीं होगा, जो कि दूसरों को दु:ख और पीड़ा देने वाला काम करेगा। हो सकता है, कोई आलस्य के कारण लेखनी, तूलिका या छिन्नी नहीं छूना चाहता, लेकिन इस तरह के स्थायी आत्मप्रकाश के बिना भी आदमी आत्म-प्रकाश कर सकता है। हर एक आदमी अपने साथ एक वातावरण लेकर घूमता है, जिसके पास आने वाले अवश्य उससे प्रभावित होते हैं।
घुमक्कड़ यदि मौन रहने का व्रत धारण कर ले, तो वह अधिक सफलता से आत्मा-गोपन कर सकता है, किंतु ऐसा घुमक्कड़ देश की सीमा से बाहर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता। फिर ऐसा क्या संकट पड़ा है कि सारे भुवन में विचरण करने वाला व्यक्ति अपनी जीभ कटा ले। केवल बोलने वाला घुमक्कड़ दूसरे का कम लाभ नहीं करता। बोलने और लिखने दोनों ही से काल और देश दोनों में अधिक आदमी लाभ उठा सकते हैं, लेकिन अकेली वाणी भी कम महत्व नहीं रखती। इस शताब्दी के आरंभ में काशी के सर्वश्रेष्ठ विद्वान पंडित शिवकुमार शास्त्री अपने समय के ही नहीं, वर्तमान अर्ध-शताब्दीं के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत थे। वह शास्त्रार्थ में अद्वितीय तथा सफल अध्यापक थे, किंतु लेखनी के या तो आलसी थे या दुर्बल, अथवा दोनों ही। उन्होंने एक पुस्तक पहले लिखी, जबकि उनकी ख्याति नहीं हुई थी। ख्याति के बाद एक पुस्तक लिखी, किंतु उसे अपने शिष्य के नाम से छपवाया। प्रतिद्वंद्वी दोष निकालेंगे, इसीलिए वह कुछ भी लिखने से हिचकिचाते थे। उस समय के दोष निकालने वाले संस्कृतज्ञ कुछ निम्नतल में चले गये थे, इसमें संदेह नहीं।
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