ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
भट्टोजी दीक्षित ने शाहजहाँ के समय सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में 'सिद्धांत कौमुदी' नाम की प्रसिद्ध पुस्तक लिखी, साथ ही व्याकरण के कितने ही तत्वों की व्याख्या करते हुए 'मनोरमा' नामक ग्रंथ भी लिखा। शाहजहाँ के दरबारी पंडित, पंडितराज जगन्नाथ विचारों में कितने उदार थे, यह इसी से मालुम होगा कि उन्होंने स्वधर्म पर आरूढ़ रहते एक मुसलमान स्त्री से ब्याह किया। उनकी सारे शास्त्रों में गति थी और वह वस्तुत: पंडितराज ही नहीं बल्कि संस्कृत के अंतिम महान कवि थे। लेकिन भट्टोजी दीक्षित की भूल दिखलाने के लिए उन्होंने बहुत निम्न तल पर उतरकर मनोरमा के विरुद्ध 'मनोरमा-कुचमर्दन' लिखा। बेचारे शिवकुमार “दूध का जला छाछ फूँक-फूँक कर पिये” की कहावत के मारे यदि लेखनी नहीं चला सके, तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन दो पीढ़ियों तक पढ़ाते संस्कृत के सैकड़ों चोटी के विद्वानों को पढ़ाकर क्या उन्होंने अपनी विद्वत्ता से कम लाभ पहुँचाया? कौन कह सकता है, वह ऋषि-ऋण से उऋण हुए बिना चले गये। इसलिए यह समझना गलत है कि घुमक्कड़ यदि अपनी यात्रा निरुद्देश्य करता है, तो वह ठोस पदार्थ के रूप में अपनी कृति नहीं छोड़ जायगा।
भूतकाल में हमारे बहुत-से ऐसे घुमक्कड़ हुए, जिन्होंने कोई लेख या पुस्तक नहीं छोड़ी। बहुत भारी संख्या को संसार जान भी नहीं सका। एक महान रूसी चित्रकार ने तीन सवारों का चित्र उतारा है। किसी दुर्गम निर्जन देश में चार तरुण सवार जा रहे थे, जिनमें से एक यात्रा की बलि हो गया। बाकी तीन सवार बहुत दिनों बाद बुढ़ापे के समीप पहुँचकार लौट रहे थे। रास्ते में अपने प्रथम साथी और उसके घोड़े की सफेद खोपड़ियाँ दिखाई पड़ीं। तीनों सवारों और घोड़े के चेहरे में करुणा की अतिवृष्टि कराने में चित्रकार ने कमाल कर दिया है। इस चित्र को उस समय तक मैंने नहीं देखा था, जबकि 1930 में समय के विहार में अपने से बारह शताब्दी पहले हिमालय के दुर्गम मार्ग को पार करके तिब्बत गये नालंदा के महान आचार्य शांतरक्षित की खोपड़ी देखी तो मेरे हृदय की अवस्था बहुत ही करुण हो उठी थी। कुछ मिनटों तक मैं उस खोपड़ी को एकटक देखता रहा, जिसमें से 'तत्व-संग्रह' जैसा महान दार्शनिक ग्रंथ निकला और जिसमें पचहत्तर वर्ष की उमर में भी हिमालय पार करके तिब्बत जाने की हिम्मत थी। परंतु शांतरक्षित गुमनाम नहीं मरे। उन्होंने स्वयं अपनी यात्रा नहीं लिखी, लेकिन दूसरों ने महान आचार्य बोधिसत्व के बारे में काफी लिखा है।
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