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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

पाठकों को प्रत्यक्ष दिखलाने के लिए हम यहाँ उनकी भाषा के कुछ शब्द देते हैं-

अमरो – हमरो, पानी – पानी, अनेस – आनेस्, पुछे – पूछे, अंदली – आनल, फुरान – पुरान, उचेस – ऊँचे, फूरी – बूढ़ी, काइ- काँई (क्यों), फेन- बेन (बहिन), कतिर- कहाँ (केहितीर), फेने – भनै, किंदलो, वि-किनल, वि(वेंचा) बकरो- बकरा , काको- काका (चाचा), बन्या- पण्य (शाला), दुकान , काकी- काकी (चाची) बोखालेस्- भुखालेस (अवधी) , कुच- कुछ (बहुत), ब्यालव – ब्याह, गव्- गाँव मनुस – मानुस, गवरो – गँवारो, मस –मांस, गिनेस- गिनेस (अवधी), माछो – माछो, चार- चारा (घास), याग- आग , च्योसर – चोर. याख – आँख, थुद- दूध रोवे- रोवै (भोजपुरी) , थुव – धुवाँ, रुपए- रुपैया (जोल्तोरइ), तुमरो – तुमरो, रीच – रीछ, थूलो- ठूलो (मोटा), ससुई- सास, ससुई (भोजपुरी), दुइ- दुइ (दो)

ये हमारे भारतीय घुमक्कड़ हैं, जो पिछली सात शताब्दियों से भारत से बाहर चक्कर लगा रहे हैं। वहाँ सरकंडे की सिरकी सुलभ नहीं थी, इसलिए उन्होंने कपड़े का चलता-फिरता घर स्वीकार किया। वहाँ घोड़ा अधिक उपयोगी और सुलभ था, वह बर्फ की मार सह सकता था और अपने मालिक को जल्दी एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा सकता था, साथ ही यूरोप में घोड़ों की माँग भी अधिक थी, इसलिए घोड़फेरी में सुभीता था, और हमारे रोमों ने अपना सामान ढोने के लिए घोड़ा-गाड़ी को पसंद किया। चाहे दिसंबर, जनवरी, फरवरी की घोर वर्षा हो और चाहे वर्षा की कीचड़, रोमनी बराबर एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते हैं। नृत्य और संगीत में उन्होंने पहले सस्तेपन और सुलभता के कारण प्रसिद्धि पाई और कलाकार के तौर पर भी उनका नाम हुआ। वह यूरोपीयों की अपेक्षा काले होते हैं, हमारी अपेक्षा तो वह अधिक गोरे हैं, साथ ही उन्हें सुंदरियों को पैदा करने का श्रेय भी दिया जाता है। अपने गीत और नृत्य के लिए रोमनियाँ जैसी प्रसिद्ध हैं, वैसी ही भाग्य भाखनें में भी वह प्रथम मानी जाती हैं। उनका भाग्य भाखना भीख माँगने का अंग है, यह देखते हुए भी लोग अपना हाथ उनके सामने कर ही देते हैं। हमारे देश में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद लड़का चुराने वालों का बहुत जोर देखा जाता है, लेकिन यूरोप में रोमनी बहुत पहिले से बच्चा चुराने के लिए बदनाम थे। यद्यपि यूरोपीय रोमनियों का भारतीय सिरकीवालों की तरह बुरा हाल नहीं है, किंतु तब भी वह अपने भाग्य को अपने घर के साथ कंधे पर लिए चलते हैं। वहाँ भी रोज कमाना और रोज खाना उनका जीवन-नियम है। हाँ, घोड़े के क्रय-विक्रय तथा छोटी-मोटी चीज और खरीदते-बेचते हैं इसलिए जीविका के कुछ और भी सहारे उनके पास हैं; लेकिन उनका जीवन नीरस होने पर भी एकदम नीरस रहीं कहा जा सकता।

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