लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र

घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

322 पाठक हैं

यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

सिरकी वालों का जीवन कितना नीरस है, लेकिन तब भी वह उसे अपनाए हुए हैं। क्या करें, बाप-दादों के समय से उन्होंने ऐसा ही जीवन देखा है। लेकिन यह न समझिए कि उनके जीवन की सारी घड़ियाँ नीरस हैं। नहीं, कभी उनमें जवानी रहती है, ब्याह यद्यपि वे अपनी जाति के भीतर करते हैं, किंतु तरुण-तरुणी एक दूसरे से परिचित होते हैं और बहुत करके ब्याह इच्छानुरूप होता है। वह प्रणय कलह भी करते हैं और प्रणय-मिलन भी। वह प्रेम के गीत भी गाते हैं, और कई परिवारों के इकट्ठा होने पर नृत्य भी रचते हैं। बाजे के लिए क्या चिंता? सपेरे भी तो सिरकी वाले हैं, जिनकी महुअर पर साँप नाचते हैं, उस पर क्या आदमी नहीं नाच सकते? दुख और चिंता की घड़ियाँ भले ही बहुत लंबी हों, किंतु उन्हें भुलाने के भी उनके पास बहुत-से साधन हैं। युगों से सिरकी वाले गीत-गाते आए हैं। बरसों से रौंदी जाती भूमियों के निवासी उनके परिचित हैं। उनके पास कथा और बात के लिए सामग्री की कमी नहीं। किसी तरह अपनी कठिनाइयों को भुलाकर वह जीने का रास्ता निकाल ही लेते हैं। यह है हमारे देश की घुमक्कड़ जातियाँ, जिनमें बनजारे भी सम्मिलित हैं। इसे भूलना नहीं चाहिए, यह बनजारे किसी समय वाणिज्य का काम करते थे, अपना माल नहीं व्यापारी का माल वे अपने बैलों या दूसरे जानवरों पर लादकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाते थे। इसके लिए तो उनको लदहारा कहना चाहिए, लेकिन कहा जाता था बनजारा।

भारतवर्ष में घुमक्कड़ जातियों के भाग्य में दु:ख-ही-दु:ख बदा है। जनसंख्या बढ़ने के कारण बस्ती घनी हो गई, जीवन-संघर्ष बढ़ गया, किसान का भाग्य छूट गया, फिर हमारे सिरकी वालों को क्या आशा हो सकती है। यूरोप में भी सिरकी वालों की अवस्था कुछ ही अच्छी है। जो भेद है, उसका कारण है वहाँ आबादी का उतनी अधिक संख्या में न बढ़ना, जीवन-तल का ऊँचा होना और घुमक्कड़ जातियों का अधिक कर्मपरायण होना। यह सुनकर आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है कि यूरोप के घुमक्कड़ वही सिरकीवाले हैं जिनके भाई-बंद भारत, ईरान और मध्य -एसिया में मौजूद हैं, और जो किसी कारण अपनी मातृभूमि भारत को न लौटकर दूर-ही-दूर चलते गये। ये अपने को 'रोम' कहते हैं, जो वस्तुत: 'डोम' का अपभ्रंश है। भारत से गये उन्हें काफी समय हो गया, यूरोप में पंद्रहवी सदी में उनके पहुँच जाने का पता लगता है। आज उन्हें पता नहीं कि वह कभी भारत से आए थे। 'रोमनी' या 'रोम' से वे इतना ही समझ सकते हैं, कि उनका रोम नगर से कोई संबंध है। इंग्लैंड में उन्हें 'जिप्सी' कहते हैं, जिससे भ्रम होता है कि इजिप्ट (मिश्र) से उनका कोई संबंध है। वस्तु्त: उनका न रोम से संबंध है न इजिप्ट से। रूस में उन्हें 'सिगान' कहते हैं। अनुसंधान से पता लगा है, कि रोमनी लोग भारत से ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में टूटकर सदा के लिए अलग हुए। सात सौ बरस के भीतर वे बिलकुल भूल गये, कि उनका भारत में कोई संबंध है। आज भी उनमें बहुत ऐसे मिलते हैं, जो रंगरूप में बिलकुल भारतीय हैं। हमारे एक मित्र रोमनी बनकर इंग्लैंड भी चले गये और किसी ने उनके नकली पासपोर्ट की छानबीन नहीं की। तो भी यदि भाषा-शास्त्रियों ने परिश्रम न किया होता, तो कोई विश्वास नहीं करता, कि रोमनी वस्तुत: भारतीय सिरकी वाले हैं। यूरोप में जाकर भी वह वही अपना व्यवसाय - नाच-गाना बंदर-भालू नचाना - करते हैं। घोड़फेरी और हाथ देखने की कला में भी उन्होंने ख्याति प्राप्त की है। भाषा-शास्त्रियों ने एक नहीं सैंकड़ों हिंदी के शब्दों जैसे-के-तैसे उनकी भाषा में देखकर फैसला कर दिया, कि वह भारतीय हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book