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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

जिस तरह ये घुमक्कड़ राज्यों की सीमाओं को तोड़कर एक जगह से दूसरी जगह स्वच्छंद विचरते हैं, और जिस तरह उनके लिए न ऊधो का लेना न माधो का देना है, उसे देखकर कितनी ही बार दिल मचल जाता है। रूस के कालिदास पुश्किन तो एक बार अपने जीवन को उनके जीवन से बदलने के लिए तैयार हो गये थे। रोमनी की काली-काली बड़ी-बड़ी आँखें, उनके कोकिलकंठ, उनके मयूरपिच्छाकार केश-पाश ने यूरोप के न जाने कितने सामंत-कुमारों को बाँध लिया। कितनों ने अपना विलास-महल छोड़ उनके तंबुओं का रास्ता स्वीकार किया। अवश्य रोमनी जीवन बिल्कुल नीरस नहीं है। रोमनियों के साथ-साथ घूमना हमारे घुमक्कड़ों के लिए कम लालसा की चीज नहीं होगी। डर है, यूरोप में घुमंतू जीवन को छोड़कर जिस तरह एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रवृत्ति बंद हो रही है, उससे कहीं यह घुमंतू जाति सर्वथा अपने अस्तित्व को खो न बैठे। एकाध भारतीयों ने रोमनी जीवन का आनंद लिया है, लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि उन्होंने उनके जीवन को अधिक गहराई में उतरकर देखना चाहा। वस्तु्त: पहले ही से कड़वे-मीठे के लिए तैयार तरुण ही उनके डेरों का आनंद ले सकते हैं। इतना तो स्पष्ट है, कि यूरोप में जहाँ-कहीं भी अभी रोमनी घुमंतू बच रहे हैं, वह हमारे यहाँ के सिरकीवालों से अच्छी अवस्था में हैं। समाज में उनका स्थान नीचा होने पर भी वह उतना नीचा नहीं हैं, जितना हमारे यहाँ के सिरकीवालों का।

यहाँ अपने पड़ोसी तिब्बत के घुमंतुओं के बारे में भी कुछ देना अनावश्यक न होगा। पहले-पहल जब मैं 1926 में तिब्बत की भूमि में गया और मैंने वहाँ के घुमंतुओं को देखा, तो उससे इतना आकृष्ट हुआ कि एक बार मन ने कहा - छोड़ो सब कुछ और हो जाओ इनके साथ। बहुत वर्षों तक मैं यही समझता रहा कि अभी भी अवसर हाथ से नहीं गया है। वह क्या चीज थी, जिसने मुझे उनकी तरफ आकृष्ट किया। यह घुमंतू दिल्ली और मानसरोवर के बीच हर साल ही घूमा करते हैं, उनके लिए यह बच्चों का खेल है। कोई-कोई तो शिमला से चीन तक की दौड़ लगाते हैं, और सारी यात्रा उनकी अपने मन से पैदल हुआ करती हैं। साथ में परिवार होता है, लेकिन परिवार की संख्या नियंत्रित है, क्योंकि सभी भाइयों की एक ही पत्नी होती हैं। रहने के लिए पतली छोलदारी रहती है। अधिक वर्षा वाले देश और काल से गुजरना नहीं पड़ता, इसलिए कपड़े की एकहरी छोलदारी पर्याप्त होती है। साथ में इधर-से-उधर बेचने की कुछ चीजें होती हैं। इनके ढोने के लिए सीधे-सादे दो तीन गधे होते हैं, जिन्हें खिलाने-पिलाने के लिए घास-दाने की फिक्र नहीं रहती। हाँ, भेड़ियों और बघेरों से रक्षा करने के लिए सावधानी रखनी पड़ती है, क्योंकि इन श्वांपदों के लिए गधे रसगुल्ले से कम मीठे नहीं होते। कितना हल्का सामान, कितना निश्चिंत जीवन और कितनी दूर तक की दौड़!

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