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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण

दूसरा तरुण राजनीति का तेज विद्यार्थी था और साधारण नहीं असाधारण। उसमें बुद्धिवाद और आदर्शवाद का सुंदर मिश्रण था। एम.ए. को बहुत अच्छे नंबरों से पास किया था। वह स्वस्थ सुंदर और विनीत था। उसका घर भी सुखी था। होश सँभालते ही उसने बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ शुरू की थीं। ज्ञान-अर्जन तो अपने लघु-जीवन के क्षण-क्षण में उसने किया था, लेकिन उसने भी एक दिन अपने जीवन का अंत पोटासियम-साइनाइड खाके कर दिया। कहते हैं, उसका कारण प्रेम हुआ था। लेकिन वह प्रेमी कैसा जो प्रेम के लिए 5-7 वर्ष की भी प्रतीक्षा न कर सके, और प्रेम कैसा जो आदमी की विवेक-बुद्धि पर परदा डाल दे, सारी प्रतिभा को बेकार कर दे? यदि उसने जीवन को बेकार ही समझा था, तो कम-से-कम उसे किसी ऐसे काम के लिए देना चाहिए था, जिससे दूसरों का उपकार होता। जब अपने कुरते को फेंकना ही है, तो आग में न फेंककर किसी आदमी को क्यों न दे दें, जिसमें उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा हो सके। तरुण-तरुणियाँ कितनी ही बार ऐसी बेवकूफी कर बैठते हैं, और समाज के लिए, देश के लिए, विद्या के लिए उपयोगी जीवन को कौड़ी के मोल नहीं, बिना मोल फेंक देते हैं। क्या वह तरुण अपने राजनीति और अर्थशास्त्र के असाधारण ज्ञान, अपनी लगन, निर्भीकता तथा साहस को लेकर किसी पिछड़ी जाति में, किसी अछूते प्रदेश में नहीं जा सकता था? यह कायरता थी, या इसे पागलपन कहना चाहिए - शत्रु से बिना लोहा लिए उसने हथियार डाल दिया। पोटासियम साइनाइड बहुत सस्ता है, रेल के नीचे कटना या पानी में कूदना बहुत आसान है, खोपड़ी में एक गोली खाली कर देना भी एक चवन्नी की बात है, लेकिन डटकर अपनी प्रतिद्वंद्वी शक्तियों से मुकाबला करना कठिन है। तरुण से आशा की जा सकती है, कि उसमें दोनों गुण होंगे। मैं समझता हूँ, घुमक्कड़ी धर्म के अनुयायी तथा इस शास्त्र के पाठक कभी इस तरह की बेवकूफी नहीं करेंगे, जैसा कि उक्त दोनों तरुणों ने किया। एक को तो मैं कोई परामर्श नहीं दे सकता था, यद्यपि उसका पत्र रूस में पहुँचा था, किंतु मेरे लौटने से पहले ही वह संसार छोड़ चुका था। मैं मानता हूँ, खास परिस्थिति में जब जीवन का कोई उपयोग न हो, और मरकर ही वह कुछ उपकार कर सकता हो तो मनुष्य को अपने जीवन को खत्म कर देने का अधिकार है। ऐसी आत्म-हत्या किसी नैतिक कानून के विरुद्ध नहीं, लेकिन ऐसी स्थिति हो, तब न? दूसरा तरुण मेरे भारत लौटने तक जीवित था, यदि वह मुझसे मिला होता या मुझे किसी तरह पता लग गया होता, तो मैं ऐसी बेवकूफी न करने देता। विद्या, स्वास्थ्य, तारुण्य, आदर्शवाद इनमें से एक भी दुर्लभ है, और जिसमें सारे हों, ऐसे जीवन को इस तरह फेंकना क्या हृदयहीनता की बात नहीं है? असली घुमक्कड़ मृत्यु से नहीं डरता, मृत्यु की छाया से वह खेलता है। लेकिन हमेशा उसका लक्ष्य रहता है, मृत्यु को परास्त करना - वह अपनी मृत्यु द्वारा उस मृत्यु को परास्त करता है।

 

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