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घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9565
आईएसबीएन :9781613012758

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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण


घुमक्कड़ जातियों में

 

दुनिया के सभी देशों और जातियों में जिस तरह घूमा जा सकता है, उसी तरह वन्यों और घुमक्कड़ जातियों में नहीं घूमा जा सकता, इसीलिए यहाँ हमें ऐसे घुमक्कड़ों के लिए विशेष तौर से लिखने की आवश्यकता पड़ी। भावी घुमक्कड़ों को शायद यह तो पता होगा कि हमारे देश की तरह दूसरे देशों में भी कुछ ऐसी जातियाँ है, जिनका न कहीं एक जगह घर है और न कोई एक गाँव। यह कहना चाहिए कि वे लोग अपने गाँव और घर को अपने कंधों पर उठाए चलते हैं। ऐसी घुमक्कड़ जातियों के लोगों की संख्या हमारे देश में लाखों है और यूरोप में भी वह बड़ी संख्या में रहती हैं। जाड़ा हो या गर्मी अथवा बरसात वे लोग चलते ही रहते हैं। जीविका के लिए कुछ करना चाहिए, इसलिए वह चौबीसों घंटे घूम नहीं सकते। उन्हें बीच-बीच में कहीं-कहीं पाँच-दस दिन के लिए ठहरना पड़ता है। हमारे तरुणों ने अपने गाँवों में कभी-कभी इन लोगों को देखा होगा। किसी वृक्ष के नीचे ऊँची जगह देखकर वह अपनी सिरकी लगाते हैं। यूरोप में उनके पास तंबू या छोलदारी हुआ करती है और हमारे यहाँ सिरकियाँ। हमारे यहाँ की बरसात में कपड़े के तंबू अच्छी किस्म के होने पर ही काम दे सकते हैं, नहीं तो वह पानी छानने का काम करेंगे। उसकी जगह हमारे यहाँ सिरकी को छोलदारी के तौर पर टाँग दिया जाता है। सिरकी सरकंडे का सिरा है, जो सरकंडे की अपेक्षा कई गुनी हल्की होती है। एक लाभ इसमें यह है कि सिरकी की बनी छोलदारी कपड़े की अपेक्षा बहुत हल्की होती है। पानी इसमें घुस नहीं सकता, इसलिए जब तक वह आदमी के सिर पर है भीगने का कोई डर नहीं। लचीली होने से वह जल्दी टूटने वाली भी नहीं है और पचकने वाली होने से एक दूसरे से दबकर चिपक जाती है और पानी का बूँद दरार से पार नहीं जा सकता। इस सब गुणों के होते हुए भी सिरकी बहुत सस्ती है। उसके बनाने में भी अधिक कौशल की आवश्यकता नहीं, इसलिए घुमक्कड़ जातियाँ स्वयं अपनी सिरकी तैयार कर लेती हैं। इस प्रकार पाठक यह भी समझ सकते हैं कि इन घुमक्कड़ों को क्यों 'सिरकीवाला' कहते हैं।

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