ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
वन्य जातियों में घूमना, मनन, अध्ययन करना एक बहुत रोचक जीवन है। भारत में इस काम के लिए काफी प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों की आवश्यवकता है। हमारे कितने ही तरुण व्यर्थ का जीवन-यापन करते हैं। उस जीवन को व्यर्थ ही कहा जायगा, जिससे आदमी न स्वयं लाभ उठाता है न समाज को ही लाभ पहुँचाता है। जिसके भीतर घुमक्कड़ी का छोटा-मोटा भी अंकुर है, उससे तो आशा नहीं की जा सकती, कि वह अपने जीवन को इस तरह बेकार करेगा। किंतु बाज वक्त घुमक्कड़ी की महिमा को आदमी जान नहीं पाता और जीवन को मुफ्त में खो देता है। आज दो तरुणों की स्मृति मेरे सामने है। दोनों ने पच्चीस वर्ष की आयु से पहले ही अपने हाथों अपने जीवन को समाप्त कर दिया। उनमें एक इतिहास और संस्कृत का असाधारण मेधावी विद्यार्थी था, एक कालेज में प्रोफेसर बनकर गया था। उसे वर्तमान से संतोष नहीं था, और चाहता था और भी अपने ज्ञान और योग्यता को बढ़ाए। राजनीति में आगे बढ़े हुए विचार उसके लिए हानिकारक साबित हुए और नौकरी छोड़कर चला जाना पड़ा। उसके पिता गरीब नहीं थे, लेकिन पिता की पेंशन पर वह जीवन-यापन करना अपने लिए परम अनुचित समझता था। दरवाजे उसे उतने ही मालूम थे, जितने कि दीख पड़ते थे। तरुणों के लिए और भी खुल सकने वाले दरवाजे हैं, इसका उसे पता नहीं था। वह जान सकता था, आसाम के कोने में एक मिसमी जाति है या मणिपुर में स्त्री-प्रधान जाति है, जो सूरत में मंगोल, भाषा में स्यामी और धर्म में पक्की वैष्णव है। वहाँ उसे मासिक सौ-डेढ़ सौ की आवश्यकता नहीं होगी, और न निराश होकर अपनी जीवन-लीला समाप्त करने की आवश्यकता। सिर्फ हाथ-पैर हिलाने-डुलाने की आवश्यकता थी, फिर एक मिसमी या मणिपुरी ग्रामीण तरुण के सुखी और निश्चिंत जीवन को अपनाकर वह आगे बढ़ सकता, अपने ज्ञान को भी बढ़ा सकता था, दुनिया को भी कितनी ही नई बातें बतला सकता था। क्या आवश्यकता थी उसकी अपने जीवन को इस प्रकार फेंकने की? इतने उपयोगी जीवन को इस तरह गँवाना क्या कभी समझदारी का काम समझा जा सकता है?
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