ई-पुस्तकें >> घुमक्कड़ शास्त्र घुमक्कड़ शास्त्रराहुल सांकृत्यायन
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यात्रा संग्रहों के प्रणेता का यात्रा संस्मरण
भूगोल और इतिहास के साथ-साथ विद्यार्थी अब यात्रा-संबंधी दूसरे साहित्य का भी अध्ययन कर सकता है। कालेज में अध्ययन के समय उसे लेखनी चलाने का भी अभ्यास करना चाहिए। यह ऐसी आयु है जिसमें हरेक जीवट वाले तरुण-तरुणी में कविता करने की स्वाभाविक प्रेरणा होती है, कथा-कहानी का लेखक बनने की मन में उमंग उठती है। इससे लाभ उठाकर हमारे तरुण को अधिक-से-अधिक पृष्ठ काले करने चाहिए, लेकिन यदि वह अपनी कृतियों को प्रकाश में लाने के लिए उतावला न हो, तो अच्छा है। समय से पहले लेख और कविता का पत्रों में प्रकाशित हो जाना आदमी के हर्ष को तो बढ़ाता है, लेकिन कितनी ही बार यह खतरे की भी चीज होती है। कितने ही ऐसे प्रतिभाशाली तरुण देखे गये हैं, जिनका भविष्य समय से पहले ख्याति मिल जाने के कारण खतम हो गया। चार सुंदर कविताएँ बन गईं, फिर ख्याति तो मिलनी ही ठहरी और कवि-सम्मेलनों में बार-बार पढ़ने का आग्रह भी होना ही ठहरा। आज की पीढ़ी में भी कुछ ऐसे तरुण हैं, जिन्हें जल्दी ही प्रसिद्धि ने किसी लायक नहीं रखा। अब उनका मन नवसृजन की ओर आता ही नहीं। किसी नए नगर के कवि-सम्मेनलन में जाने पर उनकी पुरानी कविता के ऊपर प्रचंड करतल-ध्वनि होगी ही, फिर मन क्यों एकाग्र हो नवसृजन में लगेगा? घुमक्कड़ को इतनी सस्ती कीर्ति नहीं चाहिए, उसका जीवन तालियों की गूँज के लिए लालायित होने के लिए नहीं है, न उसे दो-चार वर्षों तक सेवा करके पेंशन लेकर बैठना है। घुमकक्ड़ी का रोग तपेदिक के रोग से कम नहीं है, वह जीवन के साथ ही जाता है, वहाँ किसी को अवकाश या पेंशन नहीं मिलती।
साहित्य और दूसरी जिन चीजों की घुमक्कड़ों को आवश्यकता है, उनके बारे में आगे हम और भी कहने वाले हैं। यहाँ विशेष तौर से हम तरुणों का ध्यान शारीरिक तैयारी की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं। घुमक्कड़ का शरीर हर्गिज पान-फूल का नहीं होना चाहिए। जैसे उसका मन और साहस फौलाद की तरह है, उसी तरह शरीर भी फौलाद का होना चाहिए। घुमक्कड़ को पोत, रेल और विमान की यात्रा वर्जित नहीं है, किंतु इन्हीं तीनों तक सीमित रखकर कोई प्रथम श्रेणी क्या दूसरी श्रेणी का भी घुमक्कड़ नहीं बन सकता। उसे ऐसे स्थानों की यात्रा करनी पड़ेगी, जहाँ इन यात्रा-साधनों का पता नहीं होगा। कहीं बैलगाड़ी या खच्चर मिल जायँगे, लेकिन कहीं ऐसे स्थान भी आ सकते हैं, जहाँ घुमक्कड़ को अपना सामान अपनी पीठ पर लादकर चलना पड़ेगा। पीठ पर सामान ढोना एक दिन में सह्य नहीं हो सकता। यदि पहले से अभ्यास नहीं किया है, तो पंद्रह सेर के बोझे को दो मील ले जाते ही आप सारी दुनिया को कोसने लगेंगे। इसलिए बीच में जो चार साल का अवसर मिला है, उसमें भावी घुमक्कड़ को अपने शरीर को कष्ट-क्षम ही नहीं परिश्रमक्षम भी बनाना चाहिए। पीठ पर बोझा लेकर जब-तब दो-चार मील का चक्कर मार आना चाहिए।
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