ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘तुम मुझे परेशान न करो और यहां से चले जाओ। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।’
‘मैं तुम्हें मंझदार में कैसे छोड़ दूं? तुमने एक भ्रम में पड़कर अपने जीवन को एक अंधेरे मार्ग पर डाल दिया और एक मनुष्य को दानवता का मार्ग दिखाकर मनुष्य से दानव बना दिया क्या यही तुम्हारी जीत है?’
‘इसमें मेरा क्या अपराध? कौवा कोयल के अंडों को अपने अंडे समझकर कितने प्यार से सेता है परंतु उसने से निकलते हैं वही कोयल के बच्चे।’
‘इसलिए कि तुम कह रहे हो? कभी ध्यान से उसकी सूरत देखी तुमने वही चौड़ा माथा, लंबी नाक, मोटी-मोटी आंखें। अंतर केवल यह है कि बुरे काम करने से चेहरे पर गंभीरता नहीं रही जो तुममें है और वह तुम भी क्रोध में आकर खो बैठते हो... कुछ भी तो अंतर नहीं है तुम दोनों में।’
दीपक के सामने रंजन का चित्र घूमने लगा और अनायास ही उसे ऐसा अनुभव हुआ मानों सारी भूल उसी की है, शंकर सब ठीक कह रहा है। उसको लगा मानों उसके सामने कमरे की सारी चीजें घूम रही हैं.... और वह जोर से चिल्लाया, ‘शंकर मुझे अकेला छोड़ दो।’
दीपक भागकर दूसरे कमरे में जाकर पलंग पर गिर पड़ा। शंकर थोड़ी देर अकेला खड़ा रहा। फिर निराश होकर बाहर निकल गया। जब वह ड्योढ़ी में पहुंचा तो किसी नारी कंठ से निकली हल्की और पतली आवाज सुनाई दी जो पुकारकर कह रही थी, ‘सुनिए, जरा ठहरिए।’
शंकर आवाज सुनकर रुक गया और उसने घूरकर देखा। अंधेरे में एक छाया उसकी ओर बढ़ रही थी और पास आकर बोली, ‘मैंने ही आपको पुकारा था।’
‘ओह कुसुम! कहो क्या बात है?’
‘मैं आपको जानती तो नहीं परंतु एक बात पूछना चाहती हूं। क्या आप...।’
‘क्यों नहीं, क्या पूछना है तुम्हें?’
‘क्या आप रंजन का पता बतला सकते हैं?’
‘क्या तुम नहीं जानतीं?’
‘मुझे कुछ ठीक मालूम नहीं।’
‘देखिए, छिपाने का प्रयत्न न कीजिए। मैं आपकी और पिताजी की सब बातें सुन चुकी हूं।’
‘ओह! यह बात है। परंतु जानकर क्या करोगी!’
‘उससे मिलने जाऊंगी। आप जानते हैं, मुझे उससे मिले आज पूरे चौदह वर्ष हो चुके हैं।’
‘तो सवेरे नीचे खेतों पर पहुंच जाना, मेरा आदमी तुम्हें साथ ले जाएगा, परंतु जमींदार साहब को पता लग गया तो....।’
‘आप उनकी चिंता न करें। मेरे जाने से शायद बाबा का रुख बदल जाए।’
‘यदि ऐसा हो तो इससे अधिक प्रसन्नता सब लोगों को और क्या हो सकती है। भगवान तुम्हारी अवश्य सहायता करेगा कुसुम।’ यह कहकर शंकर अपने घर की ओर चला गया।
सवेरा होते ही जब जमींदार साहब काम पर गए तो कुसुम शंकर के घर जा पहुंची। शंकर ने एक घोड़ा और अपना आदमी साथ किया। वह कुसुम को सामने की पहाड़ियों पर ले गया। घोड़े बाहर ही छोड़ वे दोनों एक तंग रास्ते को पार करके हुए, एक मोड़ पर पहुंचे। कुसुम के साथी ने आगे जाने से इंकार कर दिया और बोला, ‘इस पत्थर के पीछे सामने ही कुछ डाकू बैठे होंगे। तुम वहां जाकर रंजन से मिल सकती हो।’
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