ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
कुसुम एक बार तो घबराई और डर-सी गई। फिर सोचने लगी कि जब वह यहां तक पहुंच गई है तो वहां तक जाने से क्यों घबराए और फिर रंजन तो उसका भाई है। यह सोचते ही वह हिम्मत बांधे आगे बढ़ी। पत्थर से मुड़ते ही उसने देखा, कुछ मनुष्य बैठे ताश खेल रहे थे। जब उन्होंने उस सूने स्थान से एक सुंदर युवा लड़की को इस प्रकार अपनी ओर धीरे-धीरे बढ़ते देखा तो ताश छोड़ सबके सब खड़े हो गए और आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे। जब तक वह उनके एकदम पास न पहुंच गई तब तक सब-के-सब पत्थर की भांति मौन खड़े रहे।
‘रंजन कहां है?’
सबके सब मौन थे। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया। तब उनमें से एक व्यक्ति जोर से चिल्लाया, ‘सरदार, सरदार।’ उसकी पुकार के साथ ही सामने की गुफा से एक युवक जिसका चेहरा लाल था, कमर के चारों ओर चमड़े की पट्टी बंधी थी जिसमें एक पिस्तौल लटक रहा था, निकला। कुसुम को देखते ही वह रुक गया और दोनों एक-दूसरे को खोई-खोई नजरों से देखने लगे। कुछ देर तक वह इसी प्रकार देखते रहे।
‘रंजन। कुसुम के मुंह से निकला।’
‘जान पड़ता है मैंने आपको कहीं देखा है!’
‘कुछ दिन हुए तुम मुझे ट्रेन में.....।’
‘हां, मैं आपसे कितना लज्जित हूं। रंजन ने आंखें नीची कर लीं। परंतु आप यहां कैसे?’
‘एक बहन अपने भाई से मिलने आई है।’
‘तुम... यह... क्या?’
‘क्या तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं हूं तुम्हारी कुसुम।’
‘कुसुम....।’ उसके मुख से अनायास निकला और उसने आगे बढ़कर कुसुम को गले से लगा लिया। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह उसे अंदर गुफा में ले गया और एक चटाई बिछा दी। कुसुम उस पर बैठ गई।
‘तुम आज पहली बार मेरे घर आई हो और मैं तुम्हारी कोई सेवा भी नहीं कर सकता।’
‘तुम मुझे मिल गए। यह क्या कुछ कम है?’
‘परंतु तुम इस प्रकार अपने प्राणों को संकट में डालकर यहां आ कैसे गईं?’
‘तुम्हारा प्रेम खींच लाया।’
‘क्या पिताजी को मालूम है?’
‘नहीं।’
‘यह तुमने अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें पता चल गया तो खैर नहीं।’
‘इसकी तुम चिंता न करो। आओ चलो।’
‘कहां?’
‘मैं तुम्हें लेने आई हूं।’
‘क्यों?’
‘तुम्हें यहां से निकालकर ले जाना चाहती हूं।’
‘तुम बहुत देर से पहुंची, अब मैं नहीं जा सकता।’
‘परंतु क्यों?’
‘इसका उत्तर मेरे पास नहीं।’
‘क्या तुम्हें अपने जीवन पर दया नहीं आती रंजन? अपने पिता और बहन पर दया नहीं आती?’
‘दया और अपने जीवन पर! नहीं! अपने पिता पर! नहीं कभी नहीं। फिर ऐसे पिता पर जिन्होंने मुझे अपने आप ही अंधेरे कुएं में धकेला।’
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