ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
‘नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। वह जीवित है।’
‘वह जल्दी ही आने वाला है।’ किसी की आवाज सुनाई ही। दोनों ने मुड़कर दरवाजे की ओर देखा। शंकर दरवाजे पर खड़ा था। उसे अचानक इस प्रकार देखकर दीपक बाबू कुछ घबरा-से गए।
‘आओ कैसे आना हुआ?’ और वह धीरे-धीरे भारी कदम रखते हुए शंकर की ओर बढ़े। दीपक ने देखा कि शंकर की दृष्टि उनकी ओर न होकर कुसुम की ओर लगी है। दीपक बोला, ‘यह कुसुम है। बेटा, जरा दूसरे कमरे में चली जाओ।’
और कुसुम दूसरे कमरे में चली गई। दीपक ने दरवाजा बंद कर दिया और शंकर को संबोधित करके बोला, ‘कहिए कैसे आना हुआ?’
‘मैंने भरसक प्रयत्न किया कि इस हवेली की ओर न आऊं परंतु मुझसे रहा न गया।’
‘ऐसी भी क्या लाचारी थी?’
‘रंजन।’
‘कहो!बहुत दिन बाद याद आया। क्या लिली ने बुलावा भेजा था?’
‘नहीं। बल्कि तुम्हारे लाडले की करतूतों ने मुझे आने पर मजबूर किया है। कल सवेरे मेरे चार घोड़े खुलवाकर ले गया है।’
‘तो मैं क्या कर सकता हूं! मैंने जमीन किराये पर दे रखी है उसकी चौकीदारी का जिम्मा तो नहीं है मेरा।’
‘परंतु जब मालिक ही चोर हो तो क्या करूं!’
‘अधिकार के नाते यदि मुझसे कुछ लेना चाहते हो तो यह असंभव है। वैसे यदि एक लुटे हुए मनुष्य के नाते सहायता लेने आए हो तो तुम्हें चार घोड़ों का मूल्य दिया जा रहा है। वह भी इसलिए कि तुम्हारा चोर से और उसकी.... से गहरा संबंध है।’
‘दीपक, क्या अभी तक यह वहम तुम्हारे दिल में जड़े जमाए है? अपने हाथों अपने बेटे का जीवन नष्ट करके भी क्या अभी तक तुम स्वप्न ही देख रहे हो?’
‘परंतु जब यह स्वप्न न होकर वास्तविकता हो तो मैं....।’
‘स्वप्न में वास्तविकता का धोखा नहीं हो सकता। स्वप्न के प्राणी औरों के पर्दों में ढंकी हुए तस्वीरों की भांति होते हैं और कभी-कभी तो स्वप्न के बाद सावधान हो जाने पर भी ऐसा जान पड़ता है मानों उन्होंने कभी उजाला देखा ही नहीं।’
‘मैं स्वप्न में रहूं या वास्तविकता में, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। कहो, अब तुम क्या चाहते हो?’
‘मैं तुम्हारे पास अपने नुकसान की फरियाद लेकर नहीं आया, तुम्हें समझाने आया हूं।’
‘तुम कौन हो मुझे समझाने वाले?’
‘एक पुराना मित्र, जो गलतफहमियों का शिकार बनकर ठुकरा दिया गया।’
‘मित्रता की आड़ लेकर मुझे और परेशान न करो। मैं पहले ही बहुत दुःखी हूं।’
‘जीवन तो परेशानी का दूसरा नाम है। इसका आरंभ हृदय को प्रसन्न करने वाले गीतों और सुरीली तानों से होता है और अंत गरम-गरम आंसुओं और दर्द भरी ठंडी आहों में।’
‘मैं आग में जल रहा हूं और तुम ऊपर से लेक्चर देकर मेरी हंसी उड़ाना चाहते हो?’
‘मैं क्या, प्रकृति ही तुम्हारी हंसी उड़ा रही है। जीवन आग है और हम उसके ईंधन। जिस प्रकार लकड़ियां और कोयले जलते हुए चटकते हैं, उसी प्रकार संसार के रंग-ढंग देखकर तुम कराह रहे हो।’
‘कौन कहता है कि मैं कराह रहा हूं? मैं पराजित प्राणी नहीं हूं? सब ओर मेरी जीत है।’
‘अभी तो तुम अपने-आप कह रहे थे कि मैं जल रहा हूं और जिसे तुम अपनी जीत समझते हो, वह जीत नहीं हार है। ऐसी हार, जिसने तुम्हें आज तक उठने नहीं दिया और यदि यही समझते रहे तो कभी उठने न देगी।’
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