ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
कुसुम जब यह सब कुछ कह चुकी तो उसने देखा कि दीपक बाबू का चेहरा पीला पड़कर पसीने से तर हो गया है।
‘क्यों बाबा, क्या हमारा रंजन ऐसा हो सकता है?’
‘कुसुम।’ दीपक ने चिल्लाकर कहा और कुसुम सहमकर रह गई। दीपक ने उसे इस प्रकार भयभीत देखकर पुचकारते हुए कहा, ‘ऐसे ही तुमने आते ही भयानक बातें छेड़ दीं।’ और दीपक बाबू ने कुसुम का सिर अपनी छाती से लगा लिया और उसके बालों में प्यार भरा हाथ फेरने लगे।
‘रंजन एक-दो दिन के लिए कहीं बाहर गया है। उसे तो यह पता ही नहीं कि तुम आ रही हो। नहीं तो क्या वह स्टेशन पर आए बिना रह सकता था?’
दो दिन बीत गए परंतु रंजन लौटकर न आया। कुसुम ने बाबा से पूछा तो यह उत्तर पाकर रह गई कि हो सकता है कि काम अधिक होने से कुछ दिन के लिए रुक गया हो। रंजन का नाम सुनते ही बाबा इतने परेशान क्यों हो जाते हैं। उसके हृदय में नाना प्रकार के संदेह उत्पन्न होने लगते।
जब कई दिन तक रंजन का कुछ पता न चला तो उसे विश्वास हो गया कि हो न हो इसमें कोई भेद अवश्य ही है। एक दिन संध्या समय जब जमींदार साहब हवेली की पिछली खिड़की में से बाहर नदी की ओर देख रहे थे तो कुसुम ने आकर पूछा, ‘बाबा, अभी तक रंजन लौटकर नहीं आया?’
‘हां, इसीलिए तो मैं चिंतित हूं।’
‘तो आप स्वयं जाकर क्यों नहीं देखते कि बात क्या है?’
‘यही सोच रहा हूं कि यहां का काम....।’
‘आप सदा कोई-न-कोई काम का बहाना बना देते हैं।’
‘मैं जानता हूं कि तुम उसे देखने के लिए कितनी व्याकुल हो। जहां इतना संतोष किया है कुछ समय के लिए और प्रतीक्षा कर लो।’
‘संतोष की भी तो कोई सीमा होती है बाबा।’
‘तुम्हारा हृदय बहुत दुःखी है। और होना भी चाहिए। शहर के जीवन से नई-नई इन सुनसान जंगलों में आई हो, कुछ दिन तो ऐसा लगेगा ही।’
‘नहीं, ऐसी बात तो नहीं। ये प्राकृतिक दृश्य तो मुझे शहर की फीकी रंगीनियों से कई गुना अधिक अच्छे जान पड़ते हैं।’
‘और लगने भी चाहिए। देखो ना।’ वह बात बदलते हुए बोले, ‘हमारे गांव में अस्त होते हुए सूर्य का दृश्य प्रायः बहुत सुहावना होता है। इस समय जो आनंद आता है वह देखते ही बनता है। देखो नदी के पार पहाड़ियों में सूरज की किरणें कितनी अच्छी प्रतीत होती है। अब थोड़ी ही देर में इन चंचल लहरों पर चांदनी खेलने लगेगी और दूर नदी किनारे बैठा कोई बांसुरी बजाएगा। बांसुरी का मधुर स्वर उस समय कितना मनोहर लगता है, यह तुम भली प्रकार से अनुभव कर सकती हो!’
दीपक बाबू जब वह सब कहे जा रहे थे तो कुसुम एकटक उनके मुख की ओर देख रही थी। आज यह कविता कैसे आरंभ कर दी उन्होंने! जब दीपक बाबू ने उसे इस प्रकार आश्चर्य भरी दृष्टि से अपनी ओर देखते पाया तो मौन हो गए और अपनी जीभ अपने होंठों पर फेरने लगे।
‘बाबा, जान पड़ता है कि आप मुझसे कोई बात छिपाना चाहते हैं।’ कुसुम ने कहा।
‘नहीं तो, ऐसा भी क्या है जो मैं....।’
‘तो फिर आप मुझसे ठीक-ठीक क्यों नहीं कहते?’
‘क्या?’
‘कि रंजन कहां है?’
‘तुम क्या समझती हो?’
‘कहीं वह हमसे...।’
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