ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर घाट का पत्थरगुलशन नन्दा
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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।
दीपक ने गिलास भर दिया और वह पीने लगी। दीपक के चेहरे पर एक रौनक-सी दौड़ गई। उसने साहस किया और पूछा, आप कहां जा रही हैं?
‘बंबई।’उसने तीखी नजरों से देखते हुए उत्तर दिया।
‘मैं भी बंबई जा रहा हूँ।’
परंतु वह चुप बैठी रही। कुछ देर के मौन के बाद दीपक ने फिर पूछा, ‘आप अकेली हैं या आपके साथ कोई और भी है?’
‘अकेली हूँ, अब तुम पूछोगे... मेरा नाम क्या है, बंबई में कहाँ रहती हूँ आदि-आदि। आप परिचय ही चाहते हैं ना, तो सुनिये... नाम लिली है। अकेली यात्रा इसलिए कर रही हूँ कि आप जैसे लोगों से मैं घबराती नहीं और बंबई में रहती कहां हूं, इसलिए बतला नहीं सकती कि आप जैसे जिंदादिल नवयुवक परिचय करते-करते घरों तक पहुंच जाते हैं और कुछ पूछना है आपको...?’
वह सब एक ही सांस में कह गई।
‘जी नहीं, इतना ही बहुत है।’
दीपक वहां से उठकर सामने वाले यात्री के पास जा बैठा जो लिली की तेज आवाज सुनकर उठ बैठा था।
‘क्यों साहब, क्या बात है?’ वह नींद में ही बोला।
‘कुछ नहीं जी, वे जरा लेटना चाहती थीं। मैंने सोचा आपके पास आ बैठूं।’ दीपक बोला।
‘बड़ी खुशी से।’
लिली ने क्रोध में मुंह फेर लिया, मैगजीन नीचे रख टांगें पसार लीं और थोड़ी ही देर में सो गई।
गाड़ी यात्रियों को अपने निर्दिष्ट पर छोड़ती भागी जा रही थी।
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। लिली की जब आंख खुली तो उसे यह देख आश्चर्य हुआ कि दीपक सामने बैठा उसकी मैगजीन पढ़ रहा था और बाकी की सीटें खाली थी। मैगजीन उसके हाथ में देखकर लिली को बहुत अजीब-सी लगा परंतु वह बोली नहीं। हाथ से बंधी हुई घड़ी पर देखा चार बज चुके थे और बंबई पहुंचने में चार घंटे बाकी थे।
‘ये बाकी के यात्री सब क्या हुए?’ अपनी दबी-सी आवाज में पूछा।
‘सब कुशलतापूर्वक अपने-अपने निर्दिष्ट पर पहुंच गए परंतु आपकी कोई वस्तु साथ नहीं ले गए, निश्चिंत रहिए। हां, एक यात्री आपका वह ले गया... क्या कहते हैं उसे?’
‘क्या ले गया है, जल्दी कहो।’ लिली ने घबराहट में कहा।
‘फिल्म इंडिया।’ दीपक ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
‘आपको हंसी सूझ रही है और मैं....।’ यह कहते-कहते वह रुक गई। शायद आप घबरा रही हैं। घबराइए नहीं। आखिर हम जैसे जिंदादिल के मनुष्य आपका कर भी क्या सकते हैं?
‘घबराता कौन है? और वह भी तुमसे? लाइए मेरा मैगजीन।’
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